पदच्छेदः
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सृजन्तम् | सृजत् (√सृज् + शतृ, २.१) |
आजाविषुसंहतीर् | आजि (७.१)–इषु–संहति (२.३) |
वः | त्वद् (६.३) |
सहेत | सहेत (√सह् विधिलिङ् प्र.पु. एक.) |
कोपज्वलितं | कोप–ज्वलित (√ज्वल् + क्त, २.१) |
गुरुं | गुरु (२.१) |
कः | क (१.१) |
परिस्फुरल्लोलशिखाग्रजिह्वं | परिस्फुरत् (√परि-स्फुर् + शतृ)–लोल–शिखा–अग्र–जिह्वा (२.१) |
जगज्जिघत्सन्तम् | जगन्त् (२.१)–जिघत्सत् (२.१) |
इवान्तवह्निम् | इव (अव्ययः)–अन्त–वह्नि (२.१) |
छन्दः
उपेन्द्रवज्रा [११: जतजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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सृ | ज | न्त | मा | जा | वि | षु | सं | ह | ती | र्वः |
स | हे | त | को | प | ज्व | लि | तं | गु | रुं | कः |
प | रि | स्फु | र | ल्लो | ल | शि | खा | ग्र | जि | ह्वं |
ज | ग | ज्जि | घ | त्स | न्त | मि | वा | न्त | व | ह्निम् |
ज | त | ज | ग | ग |