Summary
Arjuna said My delusion is destroyed; recollection is gained by me through your Grace, O Acyuta ! I stand firm, free of doubts; I shall excute your ?nd.
पदच्छेदः
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नष्टो | नष्ट (√नश् + क्त, १.१) |
मोहः | मोह (१.१) |
स्मृतिर्लब्धा | स्मृति (१.१)–लब्ध (√लभ् + क्त, १.१) |
त्वत्प्रसादान्मयाच्युत | त्वद्–प्रसाद (५.१)–मद् (३.१)–अच्युत (८.१) |
स्थितो | स्थित (√स्था + क्त, १.१) |
ऽस्मि | अस्मि (√अस् लट् उ.पु. ) |
गतसंदेहः | गत (√गम् + क्त)–संदेह (१.१) |
करिष्ये | करिष्ये (√कृ लृट् उ.पु. ) |
वचनं | वचन (२.१) |
तव | त्वद् (६.१) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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न | ष्टो | मो | हः | स्मृ | ति | र्ल | ब्धा |
त्व | त्प्र | सा | दा | न्म | या | च्यु | त |
स्थि | तो | ऽस्मि | ग | त | सं | दे | हः |
क | रि | ष्ये | व | च | नं | त | व |