वल्लभदेवः
ततो ब्रह्मावर्ताख्यं जनपदमधश्छायया प्रतिबिम्बेन संस्पृशंस्तत्कुरुक्षेत्रं यायाः । कीदृशम् । क्षत्रप्रधनपिशुनं राजन्यकसमरसूचकम् । अद्यापि शरशकलाद्यालोकनात् । यत्र च क्षत्रियाणां तीक्ष्णशरशतैरर्जुनो वदनान्यभ्यषिञ्जत्संधुक्षयामास निर्भरीचकार । भवानिव जलवृष्टिभिर्नलिनानीति शरबाहुल्यकथनम् ॥
पदच्छेदः
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ब्रह्मावर्तं | ब्रह्मावर्त (२.१) |
जनपदम् | जनपद (२.१) |
अथ | अथ (अव्ययः) |
छायया | छाया (३.१) |
गाहमानः | गाहमान (√गाह् + शानच्, १.१) |
क्षेत्रं | क्षेत्र (२.१) |
क्षत्रप्रधनपिशुनं | क्षत्र–प्रधन–पिशुन (२.१) |
कौरवं | कौरव (२.१) |
तद् | तद् (२.१) |
भजेथाः | भजेथाः (√भज् विधिलिङ् म.पु. ) |
राजन्यानां | राजन्य (६.३) |
शितशरशतैर् | शित (√शा + क्त)–शर–शत (३.३) |
यत्र | यत्र (अव्ययः) |
गाण्डीवधन्वा | गाण्डीवधन्वन् (१.१) |
धारापातैस् | धारा–पात (३.३) |
त्वम् | त्वद् (१.१) |
इव | इव (अव्ययः) |
कमलान्य् | कमल (२.३) |
अभ्यवर्षन् | अभ्यवर्षन् (√अभि-वृष् लङ् प्र.पु. बहु.) |
मुखानि | मुख (२.३) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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ब्र | ह्मा | व | र्तं | ज | न | प | द | म | ध | श्छा | य | या | गा | ह | मा | नः |
क्षे | त्रं | क्ष | त्र | प्र | ध | न | पि | शु | नं | कौ | र | वं | त | द्भ | जे | थाः |
रा | ज | न्या | नां | शि | त | श | र | श | तै | र्य | त्र | गा | ण्डी | व | ध | न्वा |
धा | रा | पा | तै | स्त्व | मि | व | क | म | ला | न्य | भ्य | व | र्ष | न्मु | खा | नि |
म | भ | न | त | त | ग | ग |