वल्लभदेवः
तां चर्मण्वतीमतीत्य दशपुराख्ये नगरे युवतिनयनकौतुकानामात्मानं पात्रीकुर्वस्तासां नेत्रविषयं नयनन्गच्छेः । दशपुरनिकटेन याया यथा तन्नागरिकास्त्वामीक्षेरन्नित्यर्थः । कीदृशानाम् । नागरिकत्वात्परिचिता अभ्यस्ता भ्रूशाखाविलासा येषाम् । तथा त्वदालोकनवशात्पक्ष्मोत्क्षेपेणोपरि विलसन्ती स्फुरन्ती कृपणशारप्रभा येषाम् । अतश्च कुन्दकुसुमस्य यः क्षेपः प्रेरणां तस्यानुगा अनुयायिनो ये भ्रमरास्तेषां श्रियं शोभां मुष्णन्ति यानि तेषाम् । कुन्दानां मितत्वादलीनां च कालत्वात् । यद्यपि कौतूहलविशेषणान्येतानि तथापि वस्तुबलात्तद्वत्तां नेत्राणामिवैते गुणाः ॥
पदच्छेदः
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ताम् | तद् (२.१) |
उत्तीर्य | उत्तीर्य (√उत्-तृ + ल्यप्) |
व्रज | व्रज (√व्रज् लोट् म.पु. ) |
परिचितभ्रूलताविभ्रमाणां | परिचित (√परि-चि + क्त)–भ्रू–लता–विभ्रम (६.३) |
पक्ष्मोत्क्षेपाद् | पक्ष्मन्–उत्क्षेप (५.१) |
उपरिविलसत्कृष्णशारप्रभाणाम् | उपरि (अव्ययः)–विलसत् (√वि-लस् + शतृ)–कृष्ण–शार–प्रभा (६.३) |
कुन्दक्षेपानुगमधुकरश्रीमुषाम् | कुन्द–क्षेप–अनुग–मधुकर–श्री–मुष् (६.३) |
आत्मबिम्बं | आत्मन्–बिम्ब (२.१) |
पात्रीकुर्वन् | पात्रीकुर्वत् (√पात्री-कृ + शतृ, १.१) |
दशपुरवधूनेत्रकौतूहलानाम् | दशन्–पुरवधू–नेत्र–कौतूहल (६.३) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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ता | मु | त्ती | र्य | व्र | ज | प | रि | चि | त | भ्रू | ल | ता | वि | भ्र | मा | णां |
प | क्ष्मो | त्क्षे | पा | दु | प | रि | वि | ल | स | त्कृ | ष्ण | शा | र | प्र | भा | णाम् |
कु | न्द | क्षे | पा | नु | ग | म | धु | क | र | श्री | मु | षा | मा | त्म | बि | म्बं |
पा | त्री | कु | र्व | न्द | श | पु | र | व | धू | ने | त्र | कौ | तू | ह | ला | नाम् |
म | भ | न | त | त | ग | ग |