पदच्छेदः
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विस्तारितं | विस्तारित (√वि-स्तारय् + क्त, १.१) |
मकरकेतनधीवरेण | मकरकेतन–धीवर (३.१) |
स्त्रीसंज्ञितं | स्त्री–संज्ञित (१.१) |
बडिशम् | बडिश (१.१) |
अत्र | अत्र (अव्ययः) |
भवाम्बुराशौ | भव–अम्बुराशि (७.१) |
येनाचिरात् | यद् (३.१)–अचिरात् (अव्ययः) |
तदधरामिषलोलमर्त्यमत्स्यान् | तद्–अधर–आमिष–लोल–मर्त्य–मत्स्य (२.३) |
विकृष्य | विकृष्य (√वि-कृष् + ल्यप्) |
विपचत्य् | विपचति (√वि-पच् लट् प्र.पु. एक.) |
अनुरागवह्नौ | अनुराग–वह्नि (७.१) |
छन्दः
वसन्ततिलका [१४: तभजजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ |
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वि | स्ता | रि | तं | म | क | र | के | त | न | धी | व | रे | ण |
स्त्री | सं | ज्ञि | तं | ब | डि | श | म | त्र | भ | वा | म्बु | रा | शौ |
ये | ना | चि | रा | त्त | द | ध | रा | मि | ष | लो | ल | म | र्त्य |
म | त्स्या | न्वि | कृ | ष्य | वि | प | च | त्य | नु | रा | ग | व | ह्नौ |
त | भ | ज | ज | ग | ग |