Summary
This space in between the heaven and the earth as well as all the directions are pervaded singly by You; seeing this wondrous form of Yours as such, O Exalted Soul, the triple world is very much frightened.
पदच्छेदः
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द्यावापृथिव्योरिदमन्तरं | द्यावापृथिवी (६.२)–इदम् (१.१)–अन्तर (१.१) |
हि | हि (अव्ययः) |
व्याप्तं | व्याप्त (√वि-आप् + क्त, १.१) |
त्वयैकेन | त्वद् (३.१)–एक (३.१) |
दिशश्च | दिश् (१.३)–च (अव्ययः) |
सर्वाः | सर्व (१.३) |
दृष्ट्वाद्भुतं | दृष्ट्वा (√दृश् + क्त्वा)–अद्भुत (२.१) |
रूपमिदं | रूप (२.१)–इदम् (२.१) |
तवोग्रं | त्वद् (६.१)–उग्र (२.१) |
लोकत्रयं | लोकत्रय (१.१) |
प्रव्यथितं | प्रव्यथित (√प्र-व्यथ् + क्त, १.१) |
महात्मन् | महात्मन् (८.१) |
छन्दः
इन्द्रवज्रा [११: ततजगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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द्या | वा | पृ | थि | व्यो | रि | द | म | न्त | रं | हि |
व्या | प्तं | त्व | यै | के | न | दि | श | श्च | स | र्वाः |
दृ | ष्ट्वा | द्भु | तं | रू | प | मि | दं | त | वो | ग्रं |
लो | क | त्र | यं | प्र | व्य | थि | तं | म | हा | त्मन् |
त | त | ज | ग | ग |