Summary
The Bhagavat said Being gracious towards you, I have shown you, O Arjuna, this supreme form, as a result of [Your] concentration on the Self; this form of Mine full of splendour universal , unending and primal, has been never seen before by anybody other than your-self.
पदच्छेदः
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मया | मद् (३.१) |
प्रसन्नेन | प्रसन्न (√प्र-सद् + क्त, ३.१) |
तवार्जुनेदं | त्वद् (६.१)–अर्जुन (८.१)–इदम् (१.१) |
रूपं | रूप (१.१) |
परं | पर (१.१) |
दर्शितमात्मयोगात् | दर्शित (√दर्शय् + क्त, १.१)–आत्मन्–योग (५.१) |
तेजोमयं | तेजस्–मय (१.१) |
विश्वमनन्तमाद्यं | विश्व (१.१)–अनन्त (१.१)–आद्य (१.१) |
यन्मे | यद् (१.१)–मद् (६.१) |
त्वदन्येन | त्वद्–अन्य (३.१) |
न | न (अव्ययः) |
दृष्टपूर्वम् | दृष्ट (√दृश् + क्त)–पूर्व (१.१) |
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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म | या | प्र | स | न्ने | न | त | वा | र्जु | ने | दं |
रू | पं | प | रं | द | र्शि | त | मा | त्म | यो | गात् |
ते | जो | म | यं | वि | श्व | म | न | न्त | मा | द्यं |
य | न्मे | त्व | द | न्ये | न | न | दृ | ष्ट | पू | र्वम् |