Summary
But this being the case, whosoever views himself as the sole agent (cause of actions) due to his imperfect intellect - he, the defective-minded one, does not view [things rightly].
पदच्छेदः
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तत्रैवं | तत्र (अव्ययः)–एवम् (अव्ययः) |
सति | सत् (√अस् + शतृ, ७.१) |
कर्तारमात्मानं | कर्तृ (२.१)–आत्मन् (२.१) |
केवलं | केवलम् (अव्ययः) |
तु | तु (अव्ययः) |
यः | यद् (१.१) |
पश्यत्यकृतबुद्धित्वान्न | पश्यति (√दृश् लट् प्र.पु. एक.)–अकृतबुद्धि–त्व (५.१)–न (अव्ययः) |
स | तद् (१.१) |
पश्यति | पश्यति (√दृश् लट् प्र.पु. एक.) |
दुर्मतिः | दुर्मति (१.१) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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त | त्रै | वं | स | ति | क | र्ता | र |
मा | त्मा | नं | के | व | लं | तु | यः |
प | श्य | त्य | कृ | त | बु | द्धि | त्वा |
न्न | स | प | श्य | ति | दु | र्म | तिः |