Summary
Just as waters enter into the ocean which is being filled continuously and which is [yet] firmly established, in the same way, he into whom all objects of desire enter-he attains peace; not he who longs for the objects of desire.
पदच्छेदः
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आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं | आपूर्यमाण (√आ-पृ + शानच्, २.१)–अचल–प्रतिष्ठा (२.१) |
समुद्रमापः | समुद्र (२.१)–अप् (१.३) |
प्रविशन्ति | प्रविशन्ति (√प्र-विश् लट् प्र.पु. बहु.) |
यद्वत् | यद्वत् (अव्ययः) |
तद्वत्कामा | तद्वत् (अव्ययः)–काम (१.३) |
यं | यद् (२.१) |
प्रविशन्ति | प्रविशन्ति (√प्र-विश् लट् प्र.पु. बहु.) |
सर्वे | सर्व (१.३) |
स | तद् (१.१) |
शान्तिमाप्नोति | शान्ति (२.१)–आप्नोति (√आप् लट् प्र.पु. एक.) |
न | न (अव्ययः) |
कामकामी | काम–कामिन् (१.१) |
छन्दः
उपजातिः [११]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ |
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आ | पू | र्य | मा | ण | म | च | ल | प्र | ति | ष्ठं |
स | मु | द्र | मा | पः | प्र | वि | श | न्ति | य | द्वत् |
त | द्व | त्का | मा | यं | प्र | वि | श | न्ति | स | र्वे |
स | शा | न्ति | मा | प्नो | ति | न | का | म | का | मी |