Summary
The eaters of the sacrifice-ordained (or sacrificial remnant) nectar, attain the eternal Brahman. [Even] this world is not for a non-sacrificer, how can there be the other ? O best of the Kurus !
पदच्छेदः
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यज्ञशिष्टामृतभुजो | यज्ञ–शिष्ट–अमृत–भुज् (१.३) |
यान्ति | यान्ति (√या लट् प्र.पु. बहु.) |
ब्रह्म | ब्रह्मन् (२.१) |
सनातनम् | सनातन (२.१) |
नायं | न (अव्ययः)–इदम् (१.१) |
लोको | लोक (१.१) |
ऽस्त्ययज्ञस्य | अस्ति (√अस् लट् प्र.पु. एक.)–अयज्ञ (६.१) |
कुतो | कुतस् (अव्ययः) |
ऽन्यः | अन्य (१.१) |
कुरुसत्तम | कुरुसत्तम (८.१) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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य | ज्ञ | शि | ष्टा | मृ | त | भु | जो |
या | न्ति | ब्र | ह्म | स | ना | त | नम् |
ना | यं | लो | को | ऽस्त्य | य | ज्ञ | स्य |
कु | तो | ऽन्यः | कु | रु | स | त्त | म |