Summary
Those, who have their intellect and self (mind) gone to This; who have established themselves in This and have This [alone] as their supreme goal; and who have washed off their sins by means of [perfect] knowledge-they reach a state from which there is no more return.
पदच्छेदः
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तद्बुद्धयस्तदात्मानस्तन्निष्ठास्तत्परायणाः | तद्–बुद्धि (१.३)–तद्–आत्मन् (१.३)–तद्–निष्ठा (१.३)–तद्–परायण (१.३) |
गच्छन्त्यपुनरावृत्तिं | गच्छन्ति (√गम् लट् प्र.पु. बहु.)–अपुनरावृत्ति (२.१) |
ज्ञाननिर्धूतकल्मषाः | ज्ञान–निर्धूत (√निः-धू + क्त)–कल्मष (१.३) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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त | द्बु | द्ध | य | स्त | दा | त्मा | न |
स्त | न्नि | ष्ठा | स्त | त्प | रा | य | णाः |
ग | च्छ | न्त्य | पु | न | रा | वृ | त्तिं |
ज्ञा | न | नि | र्धू | त | क | ल्म | षाः |