Summary
The Brahman-knower, who is disillusioned, who is established in Brahman and has a firm intellect, would neither rejoice on meeting a friend nor get agitated on meeting a foe.
पदच्छेदः
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इहैव | इह (अव्ययः)–एव (अव्ययः) |
तैर्जितः | तद् (३.३)–जित (√जि + क्त, १.१) |
सर्गो | सर्ग (१.१) |
येषां | यद् (६.३) |
साम्ये | साम्य (७.१) |
स्थितं | स्थित (√स्था + क्त, १.१) |
मनः | मनस् (१.१) |
निर्दोषं | निर्दोष (१.१) |
हि | हि (अव्ययः) |
समं | सम (१.१) |
ब्रह्म | ब्रह्मन् (१.१) |
तस्माद्ब्रह्मणि | तस्मात् (अव्ययः)–ब्रह्मन् (७.१) |
ते | तद् (१.३) |
स्थिताः | स्थित (√स्था + क्त, १.३) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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इ | है | व | तै | र्जि | तः | स | र्गो |
ये | षां | सा | म्ये | स्थि | तं | म | नः |
नि | र्दो | षं | हि | स | मं | ब्र | ह्म |
त | स्मा | द्ब्र | ह्म | णि | ते | स्थि | ताः |