Summary
He who, with his self (mind) not attached to the external contacts, finds happiness in the Self-that person, with his self engaged in the Yoga, pervades easily, suffering no loss, the Brahman.
पदच्छेदः
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न | न (अव्ययः) |
प्रहृष्येत्प्रियं | प्रहृष्येत् (√प्र-हृष् विधिलिङ् प्र.पु. एक.)–प्रिय (२.१) |
प्राप्य | प्राप्य (√प्र-आप् + ल्यप्) |
नोद्विजेत्प्राप्य | न (अव्ययः)–उद्विजेत् (√उत्-विज् विधिलिङ् प्र.पु. एक.)–प्राप्य (√प्र-आप् + ल्यप्) |
चाप्रियम् | च (अव्ययः)–अप्रिय (१.१) |
स्थिरबुद्धिरसंमूढो | स्थिर–बुद्धि (१.१)–असंमूढ (१.१) |
ब्रह्मविद्ब्रह्मणि | ब्रह्मन्–विद् (१.१)–ब्रह्मन् (७.१) |
स्थितः | स्थित (√स्था + क्त, १.१) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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न | प्र | हृ | ष्ये | त्प्रि | यं | प्रा | प्य |
नो | द्वि | जे | त्प्रा | प्य | चा | प्रि | यम् |
स्थि | र | बु | द्धि | र | सं | मू | ढो |
ब्र | ह्म | वि | द्ब्र | ह्म | णि | स्थि | तः |