Summary
Where he realises that limitless Bliss Which is to be grasped by intellect and is beyond sences; remaining Where he does not stir out from the Reality;
पदच्छेदः
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सुखमात्यन्तिकं | सुख (१.१)–आत्यन्तिक (१.१) |
यत्तद्बुद्धिग्राह्यमतीन्द्रियम् | यद् (१.१)–तद् (१.१)–बुद्धि–ग्राह्य (√ग्रह् + कृत्, १.१)–अतीन्द्रिय (१.१) |
वेत्ति | वेत्ति (√विद् लट् प्र.पु. एक.) |
यत्र | यत्र (अव्ययः) |
न | न (अव्ययः) |
चैवायं | च (अव्ययः)–एव (अव्ययः)–इदम् (१.१) |
स्थितश्चलति | स्थित (√स्था + क्त, १.१)–चलति (√चल् लट् प्र.पु. एक.) |
तत्त्वतः | तत्त्व (५.१) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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सु | ख | मा | त्य | न्ति | कं | य | त्त |
द्बु | द्धि | ग्रा | ह्य | म | ती | न्द्रि | यम् |
वे | त्ति | य | त्र | न | चै | वा | यं |
स्थि | त | श्च | ल | ति | त | त्त्व | तः |