Summary
Where the mind, well-restrained through Yoga-practice, remains iet; again where, observing, by the self, nothing but the Self, he (Yogi) is satisfied in the Self;
पदच्छेदः
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यत्रोपरमते | यत्र (अव्ययः)–उपरमते (√उप-रम् लट् प्र.पु. एक.) |
चित्तं | चित्त (१.१) |
निरुद्धं | निरुद्ध (√नि-रुध् + क्त, १.१) |
योगसेवया | योग–सेवा (३.१) |
यत्र | यत्र (अव्ययः) |
चैवात्मनात्मानं | च (अव्ययः)–एव (अव्ययः)–आत्मन् (३.१)–आत्मन् (२.१) |
पश्यन्नात्मनि | पश्यत् (√दृश् + शतृ, १.१)–आत्मन् (७.१) |
तुष्यति | तुष्यति (√तुष् लट् प्र.पु. एक.) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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य | त्रो | प | र | म | ते | चि | त्तं |
नि | रु | द्धं | यो | ग | से | व | या |
य | त्र | चै | वा | त्म | ना | त्मा | नं |
प | श्य | न्ना | त्म | नि | तु | ष्य | ति |