वल्लभदेवः
तत्त्वदीयं ध्वनितमाकर्ण्य तव राजहंमा अनुचराः कैलासाद्रिपर्यन्तं भविष्यन्ति । यतो मानमोत्का मानमोत्काः मानसोन्मनसः । प्रावृषि हि ते शरणार्थं तत्र यान्ति । किं तद्गर्जितमित्याह । यन्महीमवनिमुच्छिलिन्ध्रामुद्भूतशिलिन्ध्राख्यकुमुमां विधातुं प्रभवति शक्नोति । तानि हि मेघगर्जितेन जायन्ते । अत एव तदवन्ध्यं सफलम् । श्रवणसुभगं कर्णसुखकारीति चाटुपदम् । कीदृशा हंसाः । बिसानां किसलयानि तेषां छेदः खण्डः स एव पाथेयमध्वभोजनं विद्यते येषां ते तथोक्ताः । बिसकिसलयच्छेदपाथेयवन्त इति विग्रहः । आ कैलासादित्यव्ययीभावो विभाषितः ॥
पदच्छेदः
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कर्तुं | कर्तुम् (√कृ + तुमुन्) |
यच्च | यद् (१.१)–च (अव्ययः) |
प्रभवति | प्रभवति (√प्र-भू लट् प्र.पु. एक.) |
महीम् | मही (२.१) |
उच्छिलीन्ध्राम् | उच्छिलीन्ध्र (२.१) |
अवन्ध्यां | अवन्ध्य (२.१) |
तच्छ्रुत्वा | तद् (२.१)–श्रुत्वा (√श्रु + क्त्वा) |
ते | तद् (१.३) |
श्रवणसुभगं | श्रवण–सुभग (२.१) |
गर्जितं | गर्जित (२.१) |
मानसोत्काः | मानस–उत्क (१.३) |
कैलासाद्बिसकिसलयच्छेदपाथेयवन्तः | कैलास (५.१)–बिस–किसलय–छेद–पाथेयवत् (१.३) |
सम्पत्स्यन्ते | सम्पत्स्यन्ते (√सम्-पद् लृट् प्र.पु. बहु.) |
नभसि | नभस् (७.१) |
भवतो | भवत् (६.१) |
राजहंसाः | राजहंस (१.३) |
सहायाः | सहाय (१.३) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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क | र्तुं | य | च्च | प्र | भ | व | ति | म | ही | मु | च्छि | लि | न्ध्रा | म | व | न्ध्यं |
त | च्छ्रु | त्वा | ते | श्र | व | ण | सु | भ | गं | ग | र्जि | तं | मा | न | सो | त्काः |
आ | कै | ला | सा | द्बि | स | कि | स | ल | य | च्छे | द | पा | थे | य | व | न्तः |
सं | प | त्स्य | न्ते | न | भ | सि | भ | व | तो | रा | ज | हं | साः | स | हा | याः |
म | भ | न | त | त | ग | ग |