वल्लभदेवः
हे जलद मम गदतोऽध्वानं तावद्भवद्गमनहितमाकर्णय । तदनन्तरं श्रोत्रपेयं कर्णानन्दनं संदेशं श्रोष्यसि निशमयिष्यसि । कीदृशं मार्गमित्यानुकूल्यमाह । खिन्नः खिन्न इति । श्रान्तः संस्त्वं यत्र मार्गेऽद्रिषु पदं न्यस्य क्रमं निक्षिप्य गन्तामि यास्यसि क्षीणप्रायश्च नदीनामगुरु तोयमुपयुज्येति पीत्वा शीघ्रं यास्यसि । पानविश्रामौ हि पथि सुतरामुपयुज्येते । तदनुतदुपरीत्यादयः पूर्वकविप्रयोगदर्शनात्साधवः । अव्ययेन हि षष्ठीममामो निषिध्यते । श्रोत्रपेयमिति कृत्यैरधिकार्थवचने । खिन्नः खिन्न इत्यादावाधिको द्वित्वमिति कर्मधारयवत्त्वात्सुब्लुप् भवति । आधिक्ये च द्वित्वमाहितमिति महत्या संज्ञया' ज्ञापितम् । गन्तासीति लुट् । परिलघ्विति क्रियाविशेषणम् ॥
पदच्छेदः
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मार्गं | मार्ग (२.१) |
तावच्छृणु | तावत् (अव्ययः)–शृणु (√श्रु लोट् म.पु. ) |
कथयतस् | कथयत् (√कथय् + शतृ, ६.१) |
त्वत्प्रयाणानुरूपं | त्वद्–प्रयाण–अनुरूप (२.१) |
संदेशं | संदेश (२.१) |
मे | मद् (६.१) |
तदनु | तदनु (अव्ययः) |
जलद | जलद (८.१) |
श्रोष्यसि | श्रोष्यसि (√श्रु लृट् म.पु. ) |
श्रोत्रपेयम् | श्रोत्र–पेय (२.१) |
खिन्नः | खिन्न (√खिद् + क्त, १.१) |
खिन्नः | खिन्न (√खिद् + क्त, १.१) |
शिखरिषु | शिखरिन् (७.३) |
पदं | पद (२.१) |
न्यस्य | न्यस्य (√नि-अस् + ल्यप्) |
गन्तासि | गन्तासि (√गम् लुट् म.पु. ) |
यत्र | यत्र (अव्ययः) |
क्षीणः | क्षीण (√क्षि + क्त, १.१) |
क्षीणः | क्षीण (√क्षि + क्त, १.१) |
परिलघु | परिलघु (२.१) |
पयः | पयस् (२.१) |
स्रोतसां | स्रोतस् (६.३) |
चोपभुज्य | च (अव्ययः)–उपभुज्य (√उप-भुज् + ल्यप्) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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मा | र्गं | ता | व | च्छृ | णु | क | थ | य | त | स्त्व | त्प्र | या | णा | नु | कू | लं |
सं | दे | शं | मे | त | द | नु | ज | ल | द | श्रो | ष्य | सि | श्रो | त्र | पे | यम् |
खि | न्नः | खि | न्नः | शि | ख | रि | षु | प | दं | न्य | स्य | ग | न्ता | सि | य | त्र |
क्षी | णः | क्षी | णः | प | रि | ल | घु | प | यः | स्रो | त | सां | चो | प | भु | ज्य |
म | भ | न | त | त | ग | ग |