वल्लभदेवः
अस्मात्प्रदेशात्त्वमुत्तराभिमुखः खमुद्गच्छ । सरसा निचुला वेतसा यत्रेति प्रावृड्वर्णनम् । त्वं कीदृशः । चकितचकितं सवासमुद्वक्ताभिर्मुग्धसिद्धवधूभिरित्थं दृष्टोत्साहो दृष्टोद्यमः । कथमित्याह । पवनो वायुः किं स्विदचलशिखरं हरत्यपनयति । अतश्च पातशङ्कया चकितत्वम् । अत एव मुग्धत्वम् । किं कुर्वन् । दिङ्गागानामाशाकरिणां पथि स्थूलहस्तावलेहान्महाकरग्रहान्वर्जयन् । ते हि तं प्रतिद्विरदभ्रान्या ग्रहीतुमिच्छन्ति । दिङ्नागाश्च पातालादारभ्य । यदाह । मन्दाकिन्याः पयः शेषं दिग्वारणमदाविलम्' । तथा । नदत्याकाशगङ्गायाः स्रोतस्युद्दामदिग्गजे' । चकितचकितमिति प्रकारे द्वित्वम् ॥
पदच्छेदः
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अद्रेः | अद्रि (६.१) |
शृङ्गं | शृङ्ग (२.१) |
हरति | हरति (√हृ लट् प्र.पु. एक.) |
पवनः | पवन (१.१) |
किंस्विद् | क (२.१)–स्विद् (अव्ययः) |
इत्युन्मुखीभिर् | इति (अव्ययः)–उन्मुख (३.३) |
दृष्टोत्साहश् | दृष्ट (√दृश् + क्त)–उत्साह (१.१) |
चकितचकितं | चकित (√चक् + क्त)–चकित (√चक् + क्त, २.१) |
मुग्धसिद्धाङ्गनाभिः | मुग्ध (√मुह् + क्त)–सिद्ध–अङ्गना (३.३) |
स्थानाद् | स्थान (५.१) |
अस्मात् | इदम् (५.१) |
सरसनिचुलाद् | सरस–निचुल (५.१) |
उत्पतोदङ्मुखः | उत्पत (√उत्-पत् लोट् म.पु. )–उदङ्मुख (१.१) |
खं | ख (२.१) |
दिङ्नागानां | दिङ्नाग (६.३) |
पथि | पथिन् (७.१) |
परिहरन् | परिहरत् (√परि-हृ + शतृ, १.१) |
स्थूलहस्तावलेपान् | स्थूल–हस्त–अवलेप (२.३) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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अ | द्रेः | शृ | ङ्गं | ह | र | ति | प | व | नः | किं | स्वि | दि | त्यु | न्मु | खी | भि |
र्दृ | ष्टो | त्सा | ह | श्च | कि | त | च | कि | तं | मु | ग्ध | सि | द्धा | ङ्ग | ना | भिः |
स्था | ना | द | स्मा | त्स | र | स | नि | चु | ला | दु | त्प | तो | द | ङ्मु | खः | खं |
दि | ङ्ना | गा | नां | प | थि | प | रि | ह | र | न्स्थू | ल | ह | स्ता | व | ले | हान् |
म | भ | न | त | त | ग | ग |