वल्लभदेवः
एतत्पुरस्तादग्रे वल्मीकाग्रात्पिपीलिकोत्खातमृत्कूटप्रान्तादाखण्डलस्येन्द्रस्य धनुष्खण्डं चापैकदेशः प्रभवत्युत्पद्यते । सर्पगर्भं वल्मीकमिति सुरचापम्य प्रावृषि प्रभव इत्यागमः । कीदृशं तत् । अनेकवर्णत्वाद्रत्नच्छायाव्यतिकर इव बहुविधमणिकान्तिसंपर्कवत्प्रेक्षणीयं रम्यम् । येन च तव कृष्णं शरीरमतितरां कान्तिमापत्स्यते । यथा वल्लवरूपस्य हरेः प्रसरत्कान्तिना पिञ्छेन वपुः कान्तिमाप्तवत् । गोपा हि प्रायेण शवरवन्मयूरपिञ्छधारिणः । प्रसङ्गाच्च वर्षावर्णनमपि कविना क्रियत इति मार्गोपदेशेऽपि नास्य श्लोकस्यानवमरः । व्यतिकरो मिश्रीभावः । धनुष्खण्ड इति नित्यं समाम इति षत्वम् ॥
पदच्छेदः
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रत्नच्छायाव्यतिकर | रत्न–छाया–व्यतिकर (७.१) |
इव | इव (अव्ययः) |
प्रेक्ष्यमेतत्पुरस्ताद् | प्रेक्ष्य (√प्र-ईक्ष् + कृत्, १.१)–एतद् (१.१)–पुरस्तात् (अव्ययः) |
वल्मीकाग्रात् | वल्मीकाग्र (५.१) |
प्रभवति | प्रभवति (√प्र-भू लट् प्र.पु. एक.) |
धनुःखण्डम् | धनुस्–खण्ड (१.१) |
आखण्डलस्य | आखण्डल (६.१) |
येन | यद् (३.१) |
श्यामं | श्याम (१.१) |
वपुर् | वपुस् (१.१) |
अतितरां | अतितराम् (अव्ययः) |
कान्तिम् | कान्ति (२.१) |
आपत्स्यते | आपत्स्यते (√आ-पद् लृट् प्र.पु. एक.) |
ते | त्वद् (६.१) |
बर्हेणेव | बर्ह (३.१)–इव (अव्ययः) |
स्फुरितरुचिना | स्फुरित (√स्फुर् + क्त)–रुचि (३.१) |
गोपवेषस्य | गोप–वेष (६.१) |
विष्णोः | विष्णु (६.१) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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र | त्न | च्छा | या | व्य | ति | क | र | इ | व | प्रे | क्ष्य | मे | त | त्पु | र | स्ता |
द्व | ल्मी | का | ग्रा | त्प्र | भ | व | ति | ध | नु | ष्ख | ण्ड | मा | ख | ण्ड | ल | स्य |
ये | न | श्या | मं | व | पु | र | ति | त | रां | का | न्ति | मा | प | त्स्य | ते | ते |
ब | र्हे | णे | व | स्फु | रि | त | रु | चि | ना | गो | प | वे | श | स्य | वि | ष्णोः |
म | भ | न | त | त | ग | ग |