वल्लभदेवः
मालमुड्डारं" क्षेत्रं किंचिन्मनागारुह्य पश्चादनन्तरमुत्तरेणोत्तरस्यां दिशि भूयो बहुतरं गतिं प्रवलय व्यावर्तय । मालं हि दक्षिणाशास्थं तेन चोत्तरागा गन्तव्येति गतिप्रवलनम् । मालारोहणं वृष्ट्या वधूप्रीत्यर्थम् । मालेन हि तदुपरिभवमाकाशं लक्ष्यते । कीदृशस्त्वम् । वृष्टिदानात्त्वय्यायत्तं कृषिफलमित्यतो हेतोर्जनपदवधूलोचनैः पीयमानः साभिलाषं दृश्यमानः । कीदृशीः । ग्राम्यत्वादभ्रूविलासानभिज्ञैः । अत एव प्रीतिवशात्स्निग्धैररूक्षैः । कीदृशं मालम् । सद्यस्तत्क्षणं सीरेण हलेन यदुत्कषणं विलेखनं तेन सुरभि मुगन्धि । हलोत्कृष्टा हि भूर्जलदजलकणव्यतिकरात्सुरभिर्भवति । प्रवलनं स्फिरणम् । उत्तरेणेत्येनबन्तः ॥
पदच्छेदः
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त्वय्यायत्तं | त्वद् (७.१)–आयत्त (√आ-यत् + क्त, १.१) |
कृषिफलम् | कृषि–फल (१.१) |
इति | इति (अव्ययः) |
भ्रूविकारान् | भ्रू–विकार (२.३) |
अभिज्ञैः | अभिज्ञ (३.३) |
प्रीतिस्निग्धैर्जनपदवधूलोचनैः | प्रीति–स्निग्ध (३.३)–जनपद–वधू–लोचन (३.३) |
पीयमानः | पीयमान (√पा + शानच्, १.१) |
सद्यः | सद्यस् (अव्ययः) |
सीरोत्कषणसुरभि | सीर–उत्कषण–सुरभि (२.१) |
क्षेत्रम् | क्षेत्र (२.१) |
आरुह्य | आरुह्य (√आ-रुह् + ल्यप्) |
मालं | माल (२.१) |
किंचित् | कश्चित् (२.१) |
पश्चाद् | पश्चात् (अव्ययः) |
व्रज | व्रज (√व्रज् लोट् म.पु. ) |
लघुगतिर् | लघु–गति (१.१) |
भूय | भूयस् (अव्ययः) |
एवोत्तरेण | एव (अव्ययः)–उत्तरेण (अव्ययः) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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त्व | य्या | य | त्तं | कृ | षि | फ | ल | मि | ति | भ्रू | वि | ला | सा | न | भि | ज्ञैः |
प्री | ति | स्नि | ग्धै | र्ज | न | प | द | व | धू | लो | च | नैः | पी | य | मा | नः |
स | द्यः | सी | रो | त्क | ष | ण | सु | र | भि | क्षे | त्र | मा | रु | ह्य | मा | लं |
किं | चि | त्प | श्चा | द्प्र | व | ल | य | ग | तिं | भू | य | ए | वो | त्त | रे | ण |
म | भ | न | त | त | ग | ग |