वल्लभदेवः
अध्वश्रमेण परिगतं व्याप्तं भवन्तं सानुमानद्रिराम्रकूटो मूर्ध्ना शृङ्गेण साधु मम्यग्वक्ष्यति धारयिष्यति । यत आसारेण प्रशमितवनोपप्लवस्त्वम् । त्वया ह्यस्य वेगवर्षेण दावाग्निर्निर्वापितः । किमित्येतावता शिरसा वहनमित्याह । न क्षुद्रोऽपीत्यादि । संश्रयाय वासार्थं सुहृद्यायाते सति क्षुद्रोऽपि दुर्जनोऽपि विमुखो न भवति । किं पुनर्यस्तथा तेन प्रकारेणोच्चैरुन्नतः । कुतः । प्रथमसुकृतापेक्षया । आदावेतेन मे महदुपकृतम् । इदानीमेतस्याहं प्रत्युपकरोमीति पूर्वोपकार प्रत्यालोचनया न पराङ्मुखीभावः । क्षुद्रः खलो ह्रस्वश्च । उच्चैः प्रांशुर्महामनाश्च । वक्ष्यतीति वहेरूपम् । सानुमान् पर्वतः । तथेत्यनेनोच्चैस्त्वस्य प्रसिद्धिमाह ॥
पदच्छेदः
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त्वाम् | त्वद् (२.१) |
आसारप्रशमितवनोपप्लवं | आसार–प्रशमित (√प्र-शमय् + क्त)–वन–उपप्लव (२.१) |
साधु | साधु (२.१) |
मूर्ध्ना | मूर्धन् (३.१) |
वक्ष्यत्य् | वक्ष्यति (√वच् लृट् प्र.पु. एक.) |
अध्वश्रमपरिगतं | अध्वन्–श्रम–परिगत (√परि-गम् + क्त, २.१) |
सानुमान् | सानुमत् (१.१) |
आम्रकूटः | आम्रकूट (१.१) |
न | न (अव्ययः) |
क्षुद्रो | क्षुद्र (१.१) |
ऽपि | अपि (अव्ययः) |
प्रथमसुकृतापेक्षया | प्रथम–सुकृत–अपेक्षा (३.१) |
संश्रयाय | संश्रय (४.१) |
प्राप्ते | प्राप्त (√प्र-आप् + क्त, ७.१) |
मित्रे | मित्र (७.१) |
भवति | भवति (√भू लट् प्र.पु. एक.) |
विमुखः | विमुख (१.१) |
किं | क (२.१) |
पुनर् | पुनर् (अव्ययः) |
यस् | यद् (१.१) |
तथोच्चैः | तथा (अव्ययः)–उच्चैस् (अव्ययः) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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त्वा | मा | सा | र | प्र | श | मि | त | व | नो | प | प्ल | वं | सा | धु | मू | र्ध्ना |
व | क्ष्य | त्य | ध्व | श्र | म | प | रि | ग | तं | सा | नु | मा | ना | म्र | कू | टः |
न | क्षु | द्रो | ऽपि | प्र | थ | म | सु | कृ | ता | पे | क्ष | या | सं | श्र | या | य |
प्रा | प्ते | मि | त्रे | भ | व | ति | वि | मु | खः | किं | पु | न | र्य | स्त | थो | च्चैः |
म | भ | न | त | त | ग | ग |