वल्लभदेवः
त्वयि शृङ्गमुद्गते सत्याम्रकूटोऽचलो निश्चितं सुरयुगलालोकनीयां रम्यां दशामापत्स्यते । यतः परिणतफलद्योतिभिः पक्वाम्रशोभिभिर्वनाम्रवृक्षेच्छन्नोपान्तच्छादितपर्यन्तः । स्वमपि स्निग्धवेणीसवर्णोऽरूक्षकेशकलापकालः । अतश्च कृष्णचूचुकः समस्तपीतः महीकुच इवेत्युपमा । अत एव देवद्वन्द्वदर्शनम् ॥
पदच्छेदः
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छन्नोपान्तः | छन्न (√छद् + क्त)–उपान्त (१.१) |
परिणतफलद्योतिभिः | परिणत (√परि-नम् + क्त)–फल–द्योतिन् (३.३) |
काननाम्रैस् | कानन–आम्र (३.३) |
त्वय्य् | त्वद् (७.१) |
आरूढे | आरूढ (√आ-रुह् + क्त, ७.१) |
शिखरम् | शिखर (२.१) |
अचलः | अचल (१.१) |
स्निग्धवेणीसवर्णे | स्निग्ध–वेणी–सवर्ण (७.१) |
नूनं | नूनम् (अव्ययः) |
यास्यत्य् | यास्यति (√या लृट् प्र.पु. एक.) |
अमरमिथुनप्रेक्षणीयाम् | अमर–मिथुन–प्रेक्षणीय (√प्र-ईक्ष् + अनीयर्, २.१) |
अवस्थां | अवस्था (२.१) |
मध्ये | मध्य (७.१) |
श्यामः | श्याम (१.१) |
स्तन | स्तन (१.१) |
इव | इव (अव्ययः) |
भुवः | भू (६.१) |
शेषविस्तारपाण्डुः | शेष–विस्तार–पाण्डु (१.१) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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छ | न्नो | पा | न्तः | प | रि | ण | त | फ | ल | द्यो | ति | भिः | का | न | ना | म्रै |
स्त्व | य्या | रू | ढे | शि | ख | र | म | च | लः | स्नि | ग्ध | वे | णी | स | व | र्णे |
नू | नं | या | स्य | त्य | म | र | मि | थु | न | प्रे | क्ष | णी | या | म | व | स्थां |
म | ध्ये | श्या | मः | स्त | न | इ | व | भु | वः | शे | ष | वि | स्ता | र | पा | ण्डुः |
म | भ | न | त | त | ग | ग |