वल्लभदेवः
अश्वमुखादीनां वनेचराणां कान्ताभिः सेवितगहने तत्राद्रौ क्षणं स्थित्वा तदनन्तरं वर्त्म मार्गमवतीर्णस्त्वं रेवां नर्मदामालोकयिष्यसि । कीदृशीम् । उपलविषमे विन्ध्याद्रेः पादेऽधोभागे विशीर्णां विक्षिप्ताम् । अतश्च भक्तिच्छेदविच्छित्तिविभागैर्दत्तां गजवपुषि भूतिं सुधामिवेत्युपमा । तोयोत्सर्गेण जलत्यागेन द्रुततरा चतुरा गतिर्यस्येति वर्त्मतरणे कारणम् । वनचरशब्दे न सप्तम्या अलुक् । बाहुलकात् ॥
पदच्छेदः
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स्थित्वा | स्थित्वा (√स्था + क्त्वा) |
तस्मिन् | तद् (७.१) |
वनचरवधूभुक्तकुञ्जे | वनचर–वधू–भुक्त (√भुज् + क्त)–कुञ्ज (७.१) |
मुहूर्तं | मुहूर्त (२.१) |
तोयोत्सर्गद्रुततरगतिस् | तोय–उत्सर्ग–द्रुततर–गति (१.१) |
तत्परं | तद्–पर (२.१) |
वर्त्म | वर्त्मन् (२.१) |
तीर्णः | तीर्ण (√तृ + क्त, १.१) |
रेवां | रेवा (२.१) |
द्रक्ष्यस्युपलविषमे | द्रक्ष्यसि (√दृश् लृट् म.पु. )–उपल–विषम (७.१) |
विन्ध्यपादे | विन्ध्य–पाद (७.१) |
विशीर्णां | विशीर्ण (√वि-शृ + क्त, २.१) |
भक्तिच्छेदैर् | भक्तिच्छेद (३.३) |
इव | इव (अव्ययः) |
विरचितां | विरचित (√वि-रचय् + क्त, २.१) |
भूतिम् | भूति (२.१) |
अङ्गे | अङ्ग (७.१) |
गजस्य | गज (६.१) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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स्थि | त्वा | त | स्मि | न्व | न | च | र | व | धू | भु | क्त | कु | ञ्जे | मु | हू | र्तं |
तो | यो | त्स | र्ग | द्रु | त | त | र | ग | ति | स्त | त्प | रं | व | र्त्म | ती | र्णः |
रे | वां | द्र | क्ष्य | स्यु | प | ल | वि | ष | मे | वि | न्ध्य | पा | दे | वि | शी | र्णां |
भ | क्ति | च्छे | दै | रि | व | वि | र | चि | तां | भू | ति | म | ङ्गे | ग | ज | स्य |
म | भ | न | त | त | ग | ग |