वल्लभदेवः
तस्या रेवाया जलमादाय गृहीत्वा त्वं यायाः । यतो वान्तवृष्टिरुत्सृष्टतोयः । कीदृशं जलम् । तिक्तः कटुकैर्वनगजमदैर्वासितं सुरभीकृतम् । विन्ध्यो हि गजावासः । तथा तीरजेन जम्बूषण्डेन जम्बूवनेन प्रतिहतरयं जडीकृतवेगमिति मुग्रहत्वोक्तिः । रेवा हि वेगगामिनी । अनेन गुणमाह । हे घनाम्भःपानादन्तःसारं परिपूर्णं सन्तं मारुतस्त्वां तुलयितुं परिच्छेत्तुं न प्रभविष्यति । यस्मात्सर्व एव कश्चिद्रिक्तः शून्योऽर्थरहितो लघुर्भवत्यवमानास्पदत्वं याति । पूर्णता तु गौरवाय भवति । आढ्यो हि सर्वेणाद्रियते । तेन तव जन्लेन गुरुत्वे सति नानिलात्परिभवप्राप्तिः ॥
पदच्छेदः
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तस्यास् | तद् (६.१) |
तिक्तैर् | तिक्त (३.३) |
वनगजमदैर् | वन–गज–मद (३.३) |
वासितं | वासित (√वासय् + क्त, २.१) |
वान्तवृष्टिर् | वान्त (√वम् + क्त)–वृष्टि (१.१) |
जम्बूकुञ्जप्रतिहतरयं | जम्बु–कुञ्ज–प्रतिहत (√प्रति-हन् + क्त)–रय (२.१) |
तोयम् | तोय (२.१) |
आदाय | आदाय (√आ-दा + ल्यप्) |
गच्छेः | गच्छेः (√गम् विधिलिङ् म.पु. ) |
अन्तःसारं | अन्तःसार (२.१) |
घन | घन (८.१) |
तुलयितुं | तुलयितुम् (√तुलय् + तुमुन्) |
नानिलः | न (अव्ययः)–अनिल (१.१) |
शक्ष्यति | शक्ष्यति (√शक् लृट् प्र.पु. एक.) |
त्वां | त्वद् (२.१) |
रिक्तः | रिक्त (√रिच् + क्त, १.१) |
सर्वो | सर्व (१.१) |
भवति | भवति (√भू लट् प्र.पु. एक.) |
हि | हि (अव्ययः) |
लघुः | लघु (१.१) |
पूर्णता | पूर्ण (√पृ + क्त)–ता (१.१) |
गौरवाय | गौरव (४.१) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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त | स्या | स्ति | क्तै | र्व | न | ग | ज | म | दै | र्वा | सि | तं | वा | न्त | वृ | ष्टि |
र्ज | म्बू | ष | ण्ड | प्र | ति | ह | त | र | यं | तो | य | मा | दा | य | ग | च्छेः |
अ | न्तः | सा | रं | घ | न | तु | ल | यि | तुं | ना | नि | लः | श | क्ष्य | ति | त्वां |
रि | क्तः | स | र्वो | भ | व | ति | हि | ल | घुः | पू | र्ण | ता | गौ | र | वा | य |
म | भ | न | त | त | ग | ग |