वल्लभदेवः
ततोऽसौ यक्षः कतिचित्सप्ताष्टान्मासान्नीत्वातिवाह्य तस्मिन्नद्रौ चित्रकूटे मेघं ददर्शालोकितवान् । अबलाविप्रयुक्तः प्रियाविरहितः । अतश्च दौर्बल्यात्कनकलयभ्रंशेन सौवर्णकटकपातेन रिक्तप्रकोष्ठः शून्यभुजः । कामी व्यसनी । कीदृशम् । आश्लिष्टसानुमालिङ्गिताद्रिप्रस्थम् । अतश्च वप्रकीडार्थं तटाघातकेलिनिमित्तं परिणतो दत्तप्रहारो यो गजस्तत्प्रेक्षणीयं दृश्यम् । सानुलग्नेभमित्यर्थः । कदा । आषाढस्य प्रशमदिवसे समाप्तिदिने ग्रीष्मावमाने । केचित्तु शकारथ कारयोर्लिपिसारूप्यमोहात्प्रथम इत्यूचुः कथं कथमपि चैतमेवार्थ प्रतिपन्नाः । वर्षाकालस्य प्रस्तुतत्वादादिदिनमित्येतत्त्वतीव विरुद्धम् ॥
पदच्छेदः
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तस्मिन्नद्रौ | तद् (७.१)–अद्रि (७.१) |
कतिचिदबलाविप्रयुक्तः | कतिचिद् (अव्ययः)–अबला–विप्रयुक्त (√विप्र-युज् + क्त, १.१) |
स | तद् (१.१) |
कामी | कामिन् (१.१) |
नीत्वा | नीत्वा (√नी + क्त्वा) |
मासान्कनकवलयभ्रंशरिक्तप्रकोष्ठः | मास (२.३)–कनक–वलय–भ्रंश–रिक्त (√रिच् + क्त)–प्रकोष्ठ (१.१) |
आषाढस्य | आषाढ (६.१) |
प्रथमदिवसे | प्रथम–दिवस (७.१) |
मेघमाश्लिष्टसानुं | मेघ (२.१)–आश्लिष्ट (√आ-श्लिष् + क्त)–सानु (२.१) |
वप्रक्रीडापरिणतगजप्रेक्षणीयं | वप्र–क्रीडा–परिणत (√परि-नम् + क्त)–गज–प्रेक्षणीय (√प्र-ईक्ष् + अनीयर्, २.१) |
ददर्श | ददर्श (√दृश् लिट् प्र.पु. एक.) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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त | स्मि | न्न | द्रौ | क | ति | चि | द | ब | ला | वि | प्र | यु | क्तः | स | का | मी |
नी | त्वा | मा | सा | न्क | न | क | व | ल | य | भ्रं | श | रि | क्त | प्र | को | ष्ठः |
आ | षा | ढ | स्य | प्र | थ | म | दि | व | से | मे | घ | मा | श्लि | ष्ट | सा | नुं |
व | प्र | क्री | डा | प | रि | ण | त | ग | ज | प्रे | क्ष | णी | यं | द | द | र्श |
म | भ | न | त | त | ग | ग |