वल्लभदेवः
तस्य जीमूतस्य पुरोऽग्रतः कथमपि स्थित्वा राजराजस्य वैश्रवणस्यानुचरो भृत्योऽन्तर्बाष्पोऽस्रुकण्ठः किमप्यज्ञायमानं वस्तु चिरं दध्यावचिन्तयत् । कीदृशस्य । कौतुकाधानहेतोः केतकाख्यष्पजननकारणस्य । प्रावृषि तेषामुद्भवात् । अथ जलददर्शनमात्रेण कस्मादस्यान्तर्बाष्पत्वं ध्यानं चेत्याह । सुखिनोऽप्यवियुक्तस्यापि मेघालोके वर्षाकाले चेतोऽन्यथावृक्ति सविपर्ययमनल्पोत्कण्ठासंकुलम् । किं पुनः कण्ठाश्लेषप्रणयिनि प्रियतमाख्ये जने दूरवर्तिनि सति । वर्षासमयमागतमवलोक्य स्वस्था अपि यत्रोत्कण्ठन्ते तत्र विरहिणां का कथेत्यर्थः । कण्ठाश्लेष एव प्रणयोऽर्थिता विद्यते यस्य । मेघा आलोक्यन्ते यस्मिन्निति वर्षाः । स्वरूपात्प्रच्युतावस्थमन्यथावृत्ति ॥
पदच्छेदः
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तस्य | तद् (६.१) |
स्थित्वा | स्थित्वा (√स्था + क्त्वा) |
कथमपि | कथम् (अव्ययः)–अपि (अव्ययः) |
पुरः | पुरस् (अव्ययः) |
कौतुकाधानहेतोरन्तर्बाष्पश्चिरम् | कौतुक–आधान–हेतु (५.१)–अन्तर् (अव्ययः)–बाष्प (१.१)–चिरम् (अव्ययः) |
अनुचरो | अनुचर (१.१) |
राजराजस्य | राजराज (६.१) |
दध्यौ | दध्यौ (√ध्या लिट् प्र.पु. एक.) |
मेघालोके | मेघ–आलोक (७.१) |
भवति | भवति (√भू लट् प्र.पु. एक.) |
सुखिनो | सुखिन् (६.१) |
ऽप्यन्यथावृत्ति | अपि (अव्ययः)–अन्यथावृत्ति (१.१) |
चेतः | चेतस् (१.१) |
कण्ठाश्लेषप्रणयिनि | कण्ठ–आश्लेष–प्रणयिन् (७.१) |
जने | जन (७.१) |
किं | क (१.१) |
पुनर्दूरसंस्थे | पुनर् (अव्ययः)–दूर–संस्थ (७.१) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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त | स्य | स्थि | त्वा | क | थ | म | पि | पु | रः | कौ | तु | का | धा | न | हे | तो |
र | न्त | र्बा | ष्प | श्चि | र | म | नु | च | रो | रा | ज | रा | ज | स्य | द | ध्यौ |
मे | घा | लो | के | भ | व | ति | सु | खि | नो | ऽप्य | न्य | था | वृ | त्ति | चे | तः |
क | ण्ठा | श्ले | ष | प्र | ण | यि | नि | ज | ने | किं | पु | न | र्दू | र | सं | स्थे |
म | भ | न | त | त | ग | ग |