वल्लभदेवः
चिह्नैरूहिष्यन्ते । नूममनेन पथास्मत्सुहृज्जीमूत आयात इति । तर्हि मेघात्तोयकणाः पातव्या इति तदनुसरणम् । स्वादादिहृतचित्तत्वाद्व्रजंश्चासौ तैर्न लक्षित इति मार्गोन्नयनम् । किं कृत्वा सूचयिष्यन्तीति चिह्नान्याह । अर्धं रूढैः सामिपक्वैः केसरैर्हरितकपिशं नीलपिङ्गं नीपकुममं दृष्ट्वा । तद्धि वर्षासु नवजलपातं विना न जायते । तथाविर्भूतप्रथममुकुला उत्पन्नाद्यकोरकाः कन्दलीलता अनुकच्छं तीरममीपे दृष्ट्वा । ता हि वर्षामु फुल्लन्ति । तथा दग्धारण्येषु निदाघप्लुष्टकाननेष्वधिकसुरभिं गन्धं पृथिव्या आघ्राय शिङ्घित्वा । जलकणपाताद्धि तत्र सौगन्ध्याविर्भावः । जललवमुच इति मेघविशेषणं न तु जसन्तम् ॥
पदच्छेदः
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नीपं | नीप (२.१) |
दृष्ट्वा | दृष्ट्वा (√दृश् + क्त्वा) |
हरितकपिशं | हरित–कपिश (२.१) |
केसरैर् | केसर (३.३) |
अर्धरूढैर् | अर्ध–रूढ (√रुह् + क्त, ३.३) |
आविर्भूतप्रथममुकुलाः | आविर्भूत (√आविः-भू + क्त)–प्रथम–मुकुल (२.३) |
कन्दलीश् | कन्दली (२.३) |
जग्ध्वारण्येष्व् | जग्ध्वा (√जक्ष् + क्त्वा)–अरण्य (७.३) |
अधिकसुरभिं | अधिक–सुरभि (२.१) |
गन्धम् | गन्ध (२.१) |
आघ्राय | आघ्राय (√आ-घ्रा + ल्यप्) |
चोर्व्याः | च (अव्ययः)–उर्वी (६.१) |
सारङ्गास् | सारङ्ग (१.३) |
ते | तद् (१.३) |
जललवमुचः | जल–लव–मुच् (१.३) |
सूचयिष्यन्ति | सूचयिष्यन्ति (√सूचय् लृट् प्र.पु. बहु.) |
मार्गम् | मार्ग (२.१) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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नी | पं | दृ | ष्ट्वा | ह | रि | त | क | पि | शं | के | स | रै | र | र्ध | रू | ढै |
रा | वि | र्भू | त | प्र | थ | म | मु | कु | लाः | क | न्द | ली | श्चा | नु | क | च्छम् |
द | ग्धा | र | ण्ये | ष्व | धि | क | सु | र | भिं | ग | न्ध | मा | घ्रा | य | चो | र्व्याः |
सा | र | ङ्गा | स्ते | ज | ल | ल | व | मु | चः | सू | च | यि | ष्य | न्ति | मा | र्गम् |
म | भ | न | त | त | ग | ग |