वल्लभदेवः
अस्मद्धितार्थं त्वरितमपि जिगमिषोस्तव ककुभकुसुममुगन्धौ सर्वस्मिन्नद्रौ तवाहं कालहारमुत्पश्याम्युत्प्रेक्षे । कुत इत्याह । यस्मात्प्रियमित्रैः शुक्लापाङ्गैर्मयूरैः सनयमजलैर्नेत्रोदकयुक्तैः केकाः स्वागतीकृत्य वाग्भिः स्वागतं कृत्वा प्रत्युद्गत इत्युक्तिप्रत्युक्तिवशात्कालक्षेपः । अतश्चार्थये त्वाम् । अस्मदर्थं कथमपि भवान्गन्तुं व्यवस्येद्व्यायामं कुर्यात् । अहमार्तस्त्वं चोन्नत इति भावः । सनयनजलत्वमत्र चिरेण मित्रालोकनात् ॥
पदच्छेदः
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उत्पश्यामि | उत्पश्यामि (√उत्-पश् लट् उ.पु. ) |
द्रुतमपि | द्रुत (√द्रु + क्त, २.१)–अपि (अव्ययः) |
सखे | सखि (८.१) |
मत्प्रियार्थं | मद्–प्रिय–अर्थ (२.१) |
यियासोः | यियासु (६.१) |
कालक्षेपं | कालक्षेप (२.१) |
ककुभसुरभौ | ककुभ–सुरभि (७.१) |
पर्वते | पर्वत (७.१) |
पर्वते | पर्वत (७.१) |
ते | त्वद् (६.१) |
शुक्लापाङ्गैः | शुक्ल–अपाङ्ग (३.३) |
सजलनयनैः | सजल–नयन (३.३) |
स्वागतीकृत्य | स्वागतीकृत्य (√स्वागती-कृ + ल्यप्) |
केकाः | केका (२.३) |
प्रतुद्यातः | प्रतुद्य (√प्र-तुद् + ल्यप्)–अतस् (अव्ययः) |
कथम् | कथम् (अव्ययः) |
अपि | अपि (अव्ययः) |
भवान् | भवत् (१.१) |
गन्तुम् | गन्तुम् (√गम् + तुमुन्) |
आशु | आशु (२.१) |
व्यवस्येत् | व्यवस्येत् (√व्यव-सा विधिलिङ् प्र.पु. एक.) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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उ | त्प | श्या | मि | द्रु | त | म | पि | स | खे | म | त्प्रि | या | र्थं | यि | या | सोः |
का | ल | क्षे | पं | क | कु | भ | सु | र | भौ | प | र्व | ते | प | र्व | ते | ते |
शु | क्ला | पा | ङ्गैः | स | न | य | न | ज | लैः | स्वा | ग | ती | कृ | त्य | के | काः |
प्र | त्यु | द्या | तः | क | थ | म | पि | भ | वा | न्ग | न्तु | मा | शु | व्य | व | स्येत् |
म | भ | न | त | त | ग | ग |