वल्लभदेवः
तेषां दशार्णानां विदिशाख्यां राजधानीं गत्वा तत्क्षणमविकलं परिपूर्णं कामुकत्वस्य फलं त्वं लब्धा प्राप्स्यसि । कुत इत्याह । यद्यस्माद्वेत्रवत्याः सरितस्तदेवंविधं पयः पास्यमि । कीदृशम् । तीरोपान्ते स्तनितेन पक्षिकूजितेन स्खलितेन वा सुभगं सुन्दरं स्वादु रुच्यं चलोर्मि स्खलितवीचि । अत एव सभ्रूभेदेन मुखेन तुल्यम् । अत एव कामित्वफललाभः । कामी हि कामिन्याः कुटिलभ्रु वक्त्रं स्वादु धयति । ऊर्मीणां भ्रुव उपमानम् । यदिति हेतुपदम् । तदिति पयोनिर्देशः । विदिशाशब्दः पृषोदरादिः । लक्षणं नाम । लब्धेति तृन्नन्तः ॥
पदच्छेदः
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तेषां | तद् (६.३) |
दिक्षु | दिश् (७.३) |
प्रथितविदिशालक्षणां | प्रथित (√प्रथ् + क्त)–विदिशा–लक्षण (२.१) |
राजधानीं | राजधानी (२.१) |
गत्वा | गत्वा (√गम् + क्त्वा) |
सद्यः | सद्यस् (अव्ययः) |
फलम् | फल (२.१) |
अविकलं | अविकल (२.१) |
कामुकत्वस्य | कामुक–त्व (६.१) |
लब्धा | लब्धा (√लभ् लुट् प्र.पु. एक.) |
तीरोपान्तस्तनितसुभगं | तीर–उपान्त–स्तनित–सुभग (२.१) |
पास्यसि | पास्यसि (√पा लृट् म.पु. ) |
स्वादु | स्वादु (२.१) |
यस्मात् | यस्मात् (अव्ययः) |
सभ्रूभङ्गं | स (अव्ययः)–भ्रू–भङ्ग (२.१) |
मुखम् | मुख (२.१) |
इव | इव (अव्ययः) |
पयो | पयस् (२.१) |
वेत्रवत्याश् | वेत्रवती (६.१) |
चलोर्मि | चल–ऊर्मि (२.१) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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ते | षां | दि | क्षु | प्र | थि | त | वि | दि | शा | ल | क्ष | णां | रा | ज | धा | नीं |
ग | त्वा | स | द्यः | फ | ल | म | वि | क | लं | का | मु | क | त्व | स्य | ल | ब्धा |
ती | रो | पा | न्त | स्त | नि | त | सु | भ | गं | पा | स्य | सि | स्वा | दु | य | त्त |
त्स | भ्रू | भ | ङ्गं | मु | ख | मि | व | प | यो | वे | त्र | व | त्या | श्च | लो | र्मि |
म | भ | न | त | त | ग | ग |