वल्लभदेवः
तत्र विदिशायां नीचैराख्यमद्रिं विश्रामार्थं त्वमधिवसेरधितिष्ठेराश्रयेः । कीदृशम् । प्रौढपुष्पैर्विकसितकुमुमैः कदम्बैस्ततरुभिर्हेतुभिस्तव सुखदः संक्षेपात्पुलकितमिव रोमाञ्चितमिव । फुलस्य हि कदम्बकुमुमस्य रोमशोभा जायते । केचित्त्वप्रौढेति पेठुर्मुकुलितत्त्वाच्च पुलकाकारतामाहुः । यश्चाद्रिर्नागराणां विदग्धानामुद्दामानि प्रचण्डानि यौवनानि शिलावेश्मभिः प्रख्यापयति । यतः पण्यस्त्रीरतिपरिमलोद्गारिभिर्गणिकासुरतामोदमोचिभिः । विश्रामशब्दः कवीनां प्रमादजः ॥
पदच्छेदः
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नीचैराख्यं | नीचैराख्य (२.१) |
गिरिम् | गिरि (२.१) |
अधिवसेस् | अधिवसेः (√अधि-वस् विधिलिङ् म.पु. ) |
तत्र | तत्र (अव्ययः) |
विश्रामहेतोस् | विश्राम–हेतु (५.१) |
त्वत्सम्पर्कात् | त्वद्–सम्पर्क (५.१) |
पुलकितम् | पुलकित (२.१) |
इव | इव (अव्ययः) |
प्रौढपुष्पैः | प्रौढ–पुष्प (३.३) |
कदम्बैः | कदम्ब (३.३) |
यः | यद् (१.१) |
पुण्यस्त्रीरतिपरिमलोद्गारिभिर् | पुण्य–स्त्री–रति–परिमल–उद्गारिन् (३.३) |
नागराणाम् | नागर (६.३) |
उद्दामानि | उद्दाम (२.३) |
प्रथयति | प्रथयति (√प्रथय् लट् प्र.पु. एक.) |
शिलावेश्मभिर् | शिला–वेश्मन् (३.३) |
यौवनानि | यौवन (२.३) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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नी | चै | रा | ख्यं | गि | रि | म | धि | व | से | स्त | त्र | वि | श्रा | म | हे | तो |
स्त्व | त्स | म्प | र्का | त्पु | ल | कि | त | मि | व | प्रौ | ढ | पु | ष्पैः | क | द | म्बैः |
यः | प | ण्य | स्त्री | र | ति | प | रि | म | लो | द्गा | रि | भि | र्ना | ग | रा | णा |
मु | द्दा | मा | नि | प्र | थ | य | ति | शि | ला | वे | श्म | भि | र्यौ | व | ना | नि |
म | भ | न | त | त | ग | ग |