वल्लभदेवः
तत्र विश्रान्तः सन्ननन्तरं त्वं यायाः । किं कुर्वन् । वननदी काननसरिन्नदीविशेषो वा । तत्कूलेभवान्युपवनानां यूथिकाजालकानि हरिणीगुल्मान्नवजलकणिरुक्षन् । पुष्पनावीमुखानां मालाकाराङ्गनामुखानां छायादानाद्धेतोः क्षणमात्रं परिचितः सुहृत् । तापापहरत्वात् । कीदृशानां मुखानाम् । कपोलयोर्यः स्वेदो घर्मस्तस्यापनयनेनोत्पुंसनेन या रुजा बाध उपमर्दस्तया क्लान्तकर्णोत्पलानां म्लानश्रवणकुवलयानाम् । रुजाचोत्पलानामेव । भिदादित्वादङ् । पुष्पाणि लुनन्तीति पुष्पलाव्यः । कर्मण्यण् ॥
पदच्छेदः
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विश्रान्तः | विश्रान्त (√वि-श्रम् + क्त, १.१) |
सन् | सत् (√अस् + शतृ, १.१) |
व्रज | व्रज (√व्रज् लोट् म.पु. ) |
वननदीतीरजानां | वन–नदी–तीर–ज (६.३) |
निषिञ्चन्नुद्यानानां | निषिञ्चत् (√नि-सिच् + शतृ, १.१)–उद्यान (६.३) |
नवजलकणैर् | नव–जल–कण (३.३) |
यूथिकाजालकानि | यूथिका–जालक (२.३) |
गण्डस्वेदापनयनरुजाक्लान्तकर्णोत्पलानां | गण्ड–स्वेद–अपनयन–रुजा–क्लान्त (√क्लम् + क्त)–कर्ण–उत्पल (६.३) |
छायादानात् | छाया–दान (५.१) |
क्षणपरिचितः | क्षण–परिचित (√परि-चि + क्त, १.१) |
पुष्पलावीमुखानाम् | पुष्पलावी–मुख (६.३) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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वि | श्रा | न्तः | स | न्व्र | ज | व | न | न | दी | ती | र | जा | ता | नि | सि | ञ्च |
न्नु | द्या | ना | नां | न | व | ज | ल | क | णै | र्यू | थि | का | जा | ल | का | नि |
ग | ण्ड | स्वे | दा | प | न | य | न | रु | जा | क्ला | न्त | क | र्णो | त्प | ला | नां |
छा | या | दा | ना | त्क्ष | ण | प | रि | चि | तः | पु | ष्प | ला | वी | मु | खा | नाम् |
म | भ | न | त | त | ग | ग |