वल्लभदेवः
कौबेरीमाशां तव यियासोरुज्जयिनीं प्रति यद्यपि वक्रः पन्थाः कुटिलोऽध्वा तथाप्युज्जयिन्याः सौधोत्सङ्गप्रणयविमुखो हर्म्याङ्कोपभोगवितृष्णो मा भूः । अवश्यं गच्छेरित्यर्थः । यस्मात्तत्र नागरिकाणां नेत्रविभ्रमैर्यदि न रमसे न क्रीडसे तद्वञ्चितोऽसि । द्रष्टव्यादर्शनात् । कीदृशीः । विद्युद्दामस्फुरितचकितैः शम्पागुणविलसनत्रस्तैः । तथा लोलापाङ्गैश्चतुरपर्यन्तैः ॥
पदच्छेदः
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वक्रः | वक्र (१.१) |
पन्था | पथिन् (१.१) |
यदपि | यत् (अव्ययः)–अपि (अव्ययः) |
भवतः | भवत् (६.१) |
प्रस्थितस्योत्तराशां | प्रस्थित (√प्र-स्था + क्त, ६.१)–उत्तर–आशा (२.१) |
सौधोत्सङ्गप्रणयविमुखो | सौध–उत्सङ्ग–प्रणय–विमुख (१.१) |
मा | मा (अव्ययः) |
स्म | स्म (अव्ययः) |
भूर् | भूः (√भू म.पु. ) |
उज्जयिन्याः | उज्जयिनी (६.१) |
विद्युद्दामस्फुरितचकितैस् | विद्युत्–दामन्–स्फुरित (√स्फुर् + क्त)–चकित (√चक् + क्त, ३.३) |
तत्र | तत्र (अव्ययः) |
पौराङ्गनानां | पौर–अङ्गना (६.३) |
लोलापाङ्गैर् | लोल–अपाङ्ग (३.३) |
यदि | यदि (अव्ययः) |
न | न (अव्ययः) |
रमसे | रमसे (√रम् लट् म.पु. ) |
लोचनैर् | लोचन (३.३) |
वञ्चितो | वञ्चित (√वञ्चय् + क्त, १.१) |
ऽसि | असि (√अस् लट् म.पु. ) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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व | क्रः | प | न्था | य | द | पि | भ | व | तः | प्र | स्थि | त | स्यो | त्त | रा | शां |
सौ | धो | त्स | ङ्ग | प्र | ण | य | वि | मु | खो | मा | स्म | भू | रु | ज्ज | यि | न्याः |
वि | द्यु | द्दा | म | स्फु | रि | त | च | कि | तै | स्त | त्र | पौ | रा | ङ्ग | ना | नां |
लो | ला | पा | ङ्गै | र्य | दि | न | र | म | से | लो | च | नै | र्व | ञ्चि | तो | ऽसि |
म | भ | न | त | त | ग | ग |