वल्लभदेवः
निर्विन्ध्याख्या नदी । तस्याः पथि प्रवाहे संनिपत्य संश्लिष्य रसाभ्यन्तरो भव पानीयगर्भः स्याः । अपः पिबेरित्यर्थः । अथ च रमाभ्यन्तरः शृङ्गारवासितो भवेरिति वक्रोक्तिः । तां कामयेथा इत्यर्थः । कामिनीसाधर्म्यमाह । कीदृश्यास्तस्याः । वीचिक्षोभण कल्लोलकम्पेन स्तनिता कोकूयमाना या विहगश्रेणी पक्षिमाला सैव काञ्चीगुणो रशनादाम यस्याः । तथाभ्यादौ स्खलितेन परिलुठितेन सुभगं सुन्दरं संसर्पन्त्या वहन्त्याः । तथा दर्शितावर्त एव नाभिर्यस्या तस्याः । आह्वानाभावे कथं मम रागिता युक्तेत्याह । नारीणां विभ्रमो विलास एव यस्मात्प्रियेषु प्रणयवचनं प्रार्थनावचः प्रीतिवाक्यं वा । यदालोकनवशादानानां विभ्रमाः प्रवर्तन्ते तैरेवासावभ्यर्थितो भवेत् । साक्षात्तु तासां प्रार्थना लाघवकारिणी । अत्र चावर्तनाभिदर्शनादिको विलासः प्रवृत्त एव ॥
पदच्छेदः
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वीचिक्षोभस्तनितविहगश्रेणिकाञ्चीगुणायाः | वीचि–क्षोभ–स्तनित–विहग–श्रेणि–काञ्ची–गुण (६.१) |
संसर्पन्त्याः | संसर्पत् (√सम्-सृप् + शतृ, ६.१) |
स्खलितसुभगं | स्खलित (√स्खल् + क्त)–सुभग (२.१) |
दर्शितावर्तनाभः | दर्शित (√दर्शय् + क्त)–आवर्तन–आभ (१.१) |
निर्विन्ध्यायाः | निर्विन्ध्या (६.१) |
पथि | पथिन् (७.१) |
भव | भव (√भू लोट् म.पु. ) |
रसाभ्यन्तरः | रस–अभ्यन्तर (१.१) |
संनिपत्य | संनिपत्य (√संनि-पत् + ल्यप्) |
स्त्रीणाम् | स्त्री (६.३) |
आद्यं | आद्य (१.१) |
प्रणयवचनं | प्रणय–वचन (१.१) |
विभ्रमो | विभ्रम (१.१) |
हि | हि (अव्ययः) |
प्रियेषु | प्रिय (७.३) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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वी | चि | क्षो | भ | स्त | नि | त | वि | ह | ग | श्रे | णि | का | ञ्ची | गु | णा | याः |
सं | स | र्प | न्त्याः | स्ख | लि | त | सु | भ | गं | द | र्शि | ता | व | र्त | ना | भेः |
नि | र्वि | न्ध्या | याः | प | थि | भ | व | र | सा | भ्य | न्त | रः | सं | नि | प | त्य |
स्त्री | णा | मा | द्यं | प्र | ण | य | व | च | नं | वि | भ्र | मो | हि | प्रि | ये | षु |
म | भ | न | त | त | ग | ग |