वल्लभदेवः
हे सुभग तां निर्विध्यां कार्श्यं कर्तृ येन विधिना प्रकारेण प्रकृतिस्थं त्यजति स विधिर्भवतैव संपाद्यः । वर्षेस्तत्रेवेत्यर्थः । एवं हि तोयपूरागमान्नदी कृशा न भवति । कस्मात्कार्श्यत्यागाय तत्र वर्षामीत्याह । यतसतवातीतस्य विरहावस्थया सौभाग्यं वाज्जभ्यं व्यञ्जयन्तीं कथयन्तीम् । तथा हि त्वद्विरहेण वेणीभूतं प्रतनुत्वात्सलिलं यस्याः । वेणी केशपाशः । तथा तटरुहेभ्यस्तीरजेभ्यस्तरुभ्यो भ्रष्टैर्जीर्णपर्णैःर्जर्जरकिसलयैः पाण्डुरीभुताम् । प्रियविरहे हि नारी तनुः पाण्डुश्च भवति ॥
पदच्छेदः
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वेणीभूतप्रतनुसलिला | वेणी–भूत (√भू + क्त)–प्रतनु–सलिल (१.१) |
ताम् | तद् (२.१) |
अतीतस्य | अतीत (√अति-इ + क्त, ६.१) |
सिन्धुः | सिन्धु (१.१) |
पाण्डुच्छाया | पाण्डु–छाया (१.१) |
तटरुहतरुभ्रंशिभिर्जीर्णपर्णैः | तट–रुह–तरु–भ्रंशिन् (३.३)–जीर्ण (√जृ + क्त)–पर्ण (३.३) |
सौभाग्यं | सौभाग्य (२.१) |
ते | त्वद् (६.१) |
सुभग | सुभग (८.१) |
विरहावस्थया | विरह–अवस्था (३.१) |
व्यञ्जयन्ती | व्यञ्जयत् (√वि-अञ्जय् + शतृ, १.१) |
कार्श्यं | कार्श्य (२.१) |
येन | यद् (३.१) |
त्यजति | त्यजति (√त्यज् लट् प्र.पु. एक.) |
विधिना | विधि (३.१) |
स | तद् (१.१) |
त्वयैवोपपाद्यः | त्वद् (३.१)–एव (अव्ययः)–उपपाद्य (√उप-पादय् + कृत्, १.१) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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वे | णी | भू | त | प्र | त | नु | स | लि | लां | ता | म | ती | त | स्य | सि | न्धुं |
पा | ण्डु | च्छा | यां | त | ट | रु | ह | त | रु | भ्रं | शि | भि | र्जी | र्ण | प | र्णैः |
सौ | भा | ग्यं | ते | सु | भ | ग | वि | र | हा | व | स्थ | या | व्य | ञ्ज | य | न्तीं |
का | र्श्यं | ये | न | त्य | ज | ति | वि | धि | ना | स | त्व | यै | वो | प | पा | द्यः |
म | भ | न | त | त | ग | ग |