वल्लभदेवः
यत्रोज्जयिन्यां कामिनीनां सिप्रासरिदनिलः सुरतग्लानिं मोहनखेदं हरत्यपास्यति । कीदृशः । सारसानां लक्ष्मणानां मदेन मधुरं स्फुटं च कूजितं दी|कुर्वन्प्रमारयन् । तथा प्रभातेषु स्फुटितानि विकसितानि यानि कमलानि तेषामामोदः सौरभं तस्य मैत्र्या संपर्केण कषायः कषायरसयुक्तः । भावित इत्यर्थः । अङ्गानुकूलो गात्रसुखकारी । शीतलसुरभित्वात् । क इव हरतीत्याह । प्रार्थनया चाटुकारः प्रियकृत्प्रेयान्यथा कामिन्या अङ्गग्लानिमपहरति । सिप्राख्योज्जयिन्यां नदी ॥
पदच्छेदः
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दीर्घीकुर्वन् | दीर्घीकुर्वत् (√दीर्घी-कृ + शतृ, १.१) |
पटु | पटु (२.१) |
मदकलं | मद–कल (२.१) |
कूजितं | कूजित (२.१) |
सारसानां | सारस (६.३) |
प्रत्यूषेषु | प्रत्यूष (७.३) |
स्फुटितकमलामोदमैत्रीकषायः | स्फुटित (√स्फुट् + क्त)–कमल–आमोद–मैत्री–कषाय (१.१) |
यत्र | यत्र (अव्ययः) |
स्त्रीणां | स्त्री (६.३) |
हरति | हरति (√हृ लट् प्र.पु. एक.) |
सुरतग्लानिम् | सुरत–ग्लानि (२.१) |
अङ्गानुकूलः | अङ्ग–अनुकूल (१.१) |
शिप्रावातः | शिप्रा–वात (१.१) |
प्रियतम | प्रियतम (१.१) |
इव | इव (अव्ययः) |
प्रार्थनाचाटुकारः | प्रार्थना–चाटु–कार (१.१) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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दी | र्घी | कु | र्व | न्प | टु | म | द | क | लं | कू | जि | तं | सा | र | सा | नां |
प्र | त्यू | षे | षु | स्फु | टि | त | क | म | ला | मो | द | मै | त्री | क | षा | यः |
य | त्र | स्त्री | णां | ह | र | ति | सु | र | त | ग्ला | नि | म | ङ्गा | नु | कू | लः |
सि | प्रा | वा | तः | प्रि | य | त | म | इ | व | प्रा | र्थ | ना | चा | टु | का | रः |
म | भ | न | त | त | ग | ग |