वल्लभदेवः
हे जनधरान्यस्मिन्नपि कालेऽवसरे महाकालाभिधानं भगवन्तमासाद्य तावत्त्वयासितव्यं यावदर्कश्चक्षुर्गोचरतां चक्षुर्दृश्यत्वमुपैति । प्रातःसंध्यासमयपर्यन्तमित्यर्थः । किमर्थमित्याह । शूलिनो महाकालस्य संध्याबल्यर्थं पटहतां तूर्यत्वं श्लाघनीयां विदधत्त्वमामन्द्राणां सर्वमधुराणां गर्जितानां परिपूर्णं फलं प्राप्स्यसि । देवानां हि बलिकाले ढक्कापटहादिवाद्यैर्भाव्यम् । तत्र तु भवद्ध्वनितान्येव पटहीभविष्यन्तीति तत्साफल्यम् । स्थातव्यं त इति कृत्यानां कर्तरि वा ॥
पदच्छेदः
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अप्यन्यस्मिञ्जलधर | अपि (अव्ययः)–अन्य (७.१)–जलधर (८.१) |
महाकालम् | महत्–काल (२.१) |
आसाद्य | आसाद्य (√आ-सादय् + ल्यप्) |
काले | काल (७.१) |
स्थातव्यं | स्थातव्य (√स्था + कृत्, १.१) |
ते | त्वद् (६.१) |
नयनविषयं | नयनविषय (२.१) |
यावद् | यावत् (अव्ययः) |
अत्येति | अत्येति (√अति-इ लट् प्र.पु. एक.) |
भानुः | भानु (१.१) |
कुर्वन् | कुर्वत् (√कृ + शतृ, १.१) |
संध्याबलिपटहतां | संध्याबलि–पटहता (२.१) |
शूलिनः | शूलिन् (६.१) |
श्लाघनीयाम् | श्लाघनीय (√श्लाघ् + अनीयर्, २.१) |
आमन्द्राणां | आमन्द्र (६.३) |
फलम् | फल (२.१) |
अविकलं | अविकल (२.१) |
लप्स्यसे | लप्स्यसे (√लभ् लृट् म.पु. ) |
गर्जितानाम् | गर्जित (√गर्ज् + क्त, ६.३) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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अ | प्य | न्य | स्मि | ञ्ज | ल | ध | र | म | हा | का | ल | मा | सा | द्य | का | ले |
स्था | त | व्यं | ते | न | य | न | वि | ष | यं | या | व | द | भ्ये | ति | भा | नुः |
कु | र्व | न्सं | ध्या | ब | लि | प | ट | ह | तां | शू | लि | नः | श्ला | घ | नी | या |
मा | म | न्द्रा | णां | फ | ल | म | वि | क | लं | ल | प्स्य | से | ग | र्जि | ता | नाम् |
म | भ | न | त | त | ग | ग |