वल्लभदेवः
तत्र महाकालधाम्नि वेश्या भगवद्गणिकास्त्वत्तो भवत्सकाशान्नखपदसुखकरान्वर्षाग्रबिन्दून्प्रथमजलकणानासाद्य प्रीतिवशात्त्वयि भ्रमरपालीपृथुलान्कटाक्षानाक्षेप्स्यन्ति । कीदृश्यस्ताः । पादन्यासेन क्वणितरशना रणन्मेखलाः । तथा विलासवलितैर्बालव्यजनैः खिद्यमानकरा इति सौकुमार्योक्तिः । ता हि देवं वीजयन्त्यः सेवन्ते । कोदृशैस्तैः । रत्नच्छायया खचिताः प्रकटीकृता वलय उदरलेखा यैः । तासां हि वासोयुगाच्छादितानां चामरमणिभासा मध्यवलयः प्रकटीभवन्ति ॥
पदच्छेदः
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पादन्यासैः | पाद–न्यास (३.३) |
क्वणितरशनास् | क्वणित (√क्वण् + क्त)–रशना (१.३) |
तत्र | तत्र (अव्ययः) |
लीलावधूतै | लीला–अवधूत (√अव-धू + क्त, ३.३) |
रत्नच्छायाखचितवलिभिश् | रत्न–छाया–खचित (√खच् + क्त)–वलि (३.३) |
चामरैः | चामर (३.३) |
क्लान्तहस्ताः | क्लान्त (√क्लम् + क्त)–हस्त (१.३) |
वेश्यास् | वेश्या (१.३) |
त्वत्तो | त्वद् (५.१) |
नखपदसुखान् | नख–पद–सुख (२.३) |
प्राप्य | प्राप्य (√प्र-आप् + ल्यप्) |
वर्षाग्रबिन्दून् | वर्ष–अग्र–बिन्दु (२.३) |
आमोक्ष्यन्ते | आमोक्ष्यन्ते (√आ-मुच् लृट् प्र.पु. बहु.) |
त्वयि | त्वद् (७.१) |
मधुकरश्रेणिदीर्घान् | मधुकर–श्रेणि–दीर्घ (२.३) |
कटाक्षान् | कटाक्ष (२.३) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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पा | द | न्या | स | क्व | णि | त | र | श | ना | स्त | त्र | ली | ला | व | धू | तै |
र | त्न | च्छा | या | ख | चि | त | व | लि | भि | श्चा | म | रैः | क्ला | न्त | ह | स्ताः |
वे | श्या | स्त्व | त्तो | न | ख | प | द | सु | खा | न्प्रा | प्य | व | र्षा | ग्र | बि | न्दू |
ना | मो | क्ष्य | न्ति | त्व | यि | म | धु | क | र | श्रे | णि | दी | र्घा | न्क | टा | क्षान् |
म | भ | न | त | त | ग | ग |