वल्लभदेवः
पश्चादनन्तरं तत्र पशुपतेः शंभोर्नृत्तारम्भ आर्द्रगजाजिनेच्छां रुधिरसरसगजचर्माभिलाषं हर नाशय । तव तन्निभत्वात् । तथा हि कीदृशस्त्वम् । उच्चैरुद्गतं भुजतरुवनं दोर्द्रुमषण्डं मण्डलेन तिर्यगभिलीनः संश्रितः । तथाभिनवजपापुष्पवल्लोहितं सांध्यं तेजो बिभ्रत् । एवं च नवगजाजिनकाङ्क्षाहरणम् । भवान्या गोर्या दृष्टभक्तिरालोकितेत्थं विधमेवनः । कथम् । विद्युदुन्मेषाभावाच्छान्तोद्वेगानि निवृत्तखेदान्यत एव स्तिमितानि नयनानि यत्र दर्शने ॥
पदच्छेदः
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पश्चाद् | पश्चात् (अव्ययः) |
उच्चैर्भुजतरुवनं | उच्चैस् (अव्ययः)–भुज–तरु–वन (२.१) |
मण्डलेनाभिलीनः | मण्डल (३.१)–अभिलीन (√अभि-ली + क्त, १.१) |
सांध्यं | सांध्य (२.१) |
तेजः | तेजस् (२.१) |
प्रतिनवजपापुष्परक्तं | प्रतिनव–जपा–पुष्प–रक्त (२.१) |
दधानः | दधान (√धा + शानच्, १.१) |
नृत्तारम्भे | नृत्त–आरम्भ (७.१) |
हर | हर (√हृ लोट् म.पु. ) |
पशुपतेर् | पशुपति (६.१) |
आर्द्रनागाजिनेच्छां | आर्द्र–नाग–अजिन–इच्छा (२.१) |
शान्तोद्वेगस्तिमितनयनं | शान्त (√शम् + क्त)–उद्वेग–स्तिमित–नयन (२.१) |
दृष्टभक्तिर् | दृष्ट (√दृश् + क्त)–भक्ति (१.१) |
भवान्या | भवानी (३.१) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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प | श्चा | दु | च्चै | र्भु | ज | त | रु | व | नं | म | ण्ड | ले | ना | भि | ली | नः |
सां | ध्यं | ते | जः | प्र | ति | न | व | ज | पा | पु | ष्प | र | क्तं | द | धा | नः |
नृ | त्ता | र | म्भे | ह | र | प | शु | प | ते | रा | र्द्र | ना | गा | जि | ने | च्छां |
शा | न्तो | द्वे | ग | स्ति | मि | त | न | य | नं | दृ | ष्ट | भ | क्ति | र्भ | वा | न्या |
म | भ | न | त | त | ग | ग |