वल्लभदेवः
अतः कारणाद्भानोः सूर्यस्य वर्त्म मार्गं त्यज । माच्छादको भूरित्यर्थः । यतस्तस्मिकाले प्रभाताख्ये खण्डितानां विप्रलब्धानामङ्गनानां प्रियैरागत्यास्रु नेत्रजलं शमनीयम् । यदि त्वमस्य पटनिभो भवसि तदालोकनपाटवाभावान्निशाशङ्कया नागमनं स्यादिति वर्त्म भानोस्त्यज । किं च सोऽपि भानुः खण्डितायाः कमलिन्याः प्रियायाः कमालादेव वदनात्प्रालेयमवश्यायमेवास्रु हर्तुं शमयितुं प्रत्यावृत्तः प्रत्यागतः । तेनापि पद्मिन्याः प्रार्थना कार्येत्यर्थः । अतस्त्वयि कररुधि रश्मिरोधकेऽनल्पाभ्यसूयो भवेत् । त्वयि महान्तं रोषं भावयेत् । यस्य हि प्रियां प्रार्थयमानस्य यः करमवष्टम्भीयात्तस्य तत्र मन्युर्भवति । निद्राकषायमुकुलीकृतेत्यादि' ॥
पदच्छेदः
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तस्मिन् | तद् (७.१) |
काले | काल (७.१) |
नयनसलिलं | नयन–सलिल (१.१) |
योषितां | योषित् (६.३) |
खण्डितानां | खण्डित (√खण्डय् + क्त, ६.३) |
शान्तिं | शान्ति (२.१) |
नेयं | नेय (√नी + कृत्, १.१) |
प्रणयिभिर् | प्रणयिन् (३.३) |
अतो | अतस् (अव्ययः) |
वर्त्म | वर्त्मन् (२.१) |
भानोस् | भानु (६.१) |
त्यजाशु | त्यज (√त्यज् लोट् म.पु. )–आशु (अव्ययः) |
प्रालेयास्त्रं | प्रालेय–अस्त्र (२.१) |
कमलवदनात् | कमल–वदन (५.१) |
सो | तद् (१.१) |
ऽपि | अपि (अव्ययः) |
हर्तुं | हर्तुम् (√हृ + तुमुन्) |
नलिन्याः | नलिनी (६.१) |
प्रत्यावृत्तस्त्वयि | प्रत्यावृत्त (√प्रत्या-वृत् + क्त, १.१)–त्वद् (७.१) |
कररुधि | कररुध् (७.१) |
स्याद् | स्यात् (√अस् विधिलिङ् प्र.पु. एक.) |
अनल्पाभ्यसूयः | अनल्प–अभ्यसूया (१.१) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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त | स्मि | न्का | ले | न | य | न | स | लि | लं | यो | षि | तां | ख | ण्डि | ता | नां |
शा | न्तिं | ने | यं | प्र | ण | यि | भि | र | तो | व | र्त्म | भा | नो | स्त्य | जा | शु |
प्रा | ले | या | स्रं | क | म | ल | व | द | ना | त्सो | ऽपि | ह | र्तुं | न | लि | न्याः |
प्र | त्या | वृ | त्त | स्त्व | यि | क | र | रु | धि | स्या | द | न | ल्पा | भ्य | सू | यः |
म | भ | न | त | त | ग | ग |