वल्लभदेवः
तस्या गम्भीराया नीलं मलिनमेव वसनमम्बरं पानवशाद्धृत्वापास्य तव लम्बमानस्य जलभरमन्थरत्वात्तचेव तिष्ठतः प्रस्थानं कथमपि भावि प्रयाणं कथमपि भविष्यति । यम्माद्यो ज्ञातास्वादोऽमुभूतरसः स पुनिमजघनां तीरपृथुनितम्बां युवतिं कस्त्यक्तुं समर्थः । त्वं च पानी यपानाद्विदितास्वादः । सापि पुलिनमेव जघनं यस्याः सा पुलिनजघना । कीदृशं सलिलवसनम् । प्राप्तं लब्धवद्वानीरशाखा वेतसीलताः । वानीरशाखाश्लिष्टमित्यर्थः । प्राप्तापन्ने च दितीयया । यदि वा प्राप्ता वानीरशाखा येनेति बहुव्रीहिः । अतश्चोत्प्रेक्षते । करधृतमिव हस्तावष्टब्धं यथा । अंशुकं हरतो हि कामिनो नार्यः कराभ्यां रुन्धन्ति । नीलं हरितम् । ग्रीष्मेऽल्पत्वात् । अतश्च हरणान्मुक्तमुत्सृष्टं रोधस्तीरमेव नितम्बो येन । यदप्यम्बरं ह्रियते तन्मुक्तनितम्बं भवति । भविष्यतीति भावि॥
पदच्छेदः
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तस्याः | तद् (६.१) |
किंचित् | कश्चित् (२.१) |
करधृतम् | कर–धृत (√धृ + क्त, २.१) |
इव | इव (अव्ययः) |
प्राप्तवानीरशाखं | प्राप्त (√प्र-आप् + क्त)–वानीर–शाखा (२.१) |
हृत्वा | हृत्वा (√हृ + क्त्वा) |
नीलं | नील (२.१) |
सलिलवसनं | सलिल–वसन (२.१) |
मुक्तरोधोनितम्बम् | मुक्त (√मुच् + क्त)–रोधस्–नितम्ब (२.१) |
प्रस्थानं | प्रस्थान (१.१) |
ते | त्वद् (६.१) |
कथमपि | कथम् (अव्ययः)–अपि (अव्ययः) |
सखे | सखि (८.१) |
लम्बमानस्य | लम्बमान (√लम्ब् + शानच्, ६.१) |
भावि | भाविन् (१.१) |
ज्ञातास्वादो | ज्ञात (√ज्ञा + क्त)–आस्वाद (१.१) |
विवृतजघनां | विवृत (√वि-वृ + क्त)–जघन (२.१) |
को | क (१.१) |
विहातुं | विहातुम् (√वि-हा + तुमुन्) |
समर्थः | समर्थ (१.१) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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त | स्याः | किं | चि | त्क | र | धृ | त | मि | व | प्रा | प्त | वा | नी | र | शा | खं |
हृ | त्वा | नी | लं | स | लि | ल | व | स | नं | मु | क्त | रो | धो | नि | त | म्बम् |
प्र | स्था | नं | ते | क | थ | म | पि | स | खे | ल | म्ब | मा | न | स्य | भा | वि |
ज्ञा | ता | स्वा | दः | पु | लि | न | ज | घ | नां | को | वि | हा | तुं | स | म | र्थः |
म | भ | न | त | त | ग | ग |