वल्लभदेवः
ततो देवगिरिमुपजिगमिषोर्यियासोस्तव सतुषारः पवनो नीचैर्वास्यति मन्थरं गमिष्यति । कीदृशः । तव निष्यन्देन तोयमोक्षणोच्छ्वसिता विकसिता हृषिता यासौ वसुधा भूमिस्तस्या गन्धसंपर्केण सौरभव्यतिकरेण पुण्यो मनोज्ञः । तथा सौख्याद्दन्तिभिः पीयमानः । कथम् । स्रोतोरन्ध्रं करविवरं तस्य ध्वनितं शूत्कारस्तेन सुभगं रम्यम् । सशूस्कृतमित्यर्थः । मुषिरे हि वातप्रवेशादधिको ध्वनिर्भवति । स्रोतः करः करिणः । यथा । प्रासप्रोतसोतसान्तःक्षतेनेति माघस्य । तथा कानमे वन उदुम्बरफलानां परिणमयिता पाचयिता । तद्वशात्पाकोत्पत्तेः ॥
पदच्छेदः
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त्वन्निष्यन्दोच्छ्वसितवसुधागन्धसम्पर्करम्यः | त्वद्–निस्यन्द–उच्छ्वसित (√उत्-श्वस् + क्त)–वसुधा–गन्ध–सम्पर्क–रम्य (१.१) |
स्रोतोरन्ध्रध्वनितसुभगं | स्रोतोरन्ध्र–ध्वनित–सुभग (२.१) |
दन्तिभिः | दन्तिन् (३.३) |
पीयमानः | पीयमान (√पा + शानच्, १.१) |
नीचैर् | नीचैस् (अव्ययः) |
वास्यत्य् | वास्यति (√वा लृट् प्र.पु. एक.) |
उपजिगमिषोर् | उपजिगमिषु (६.१) |
देवपूर्वं | देव–पूर्व (२.१) |
गिरिं | गिरि (२.१) |
ते | त्वद् (६.१) |
शीतो | शीत (१.१) |
वायुः | वायु (१.१) |
परिणमयिता | परिणमयितृ (१.१) |
काननोदुम्बराणाम् | कानन–उदुम्बर (६.३) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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त्व | न्नि | ष्य | न्दो | च्छ्व | सि | त | व | सु | धा | ग | न्ध | सं | प | र्क | पु | ण्यः |
स्रो | तो | र | न्ध्र | ध्व | नि | त | सु | भ | गं | द | न्ति | भिः | पी | य | मा | नः |
नी | चै | र्वा | स्य | त्यु | प | जि | ग | मि | षो | र्दे | व | पू | र्वं | गि | रिं | ते |
शी | तो | वा | युः | प | रि | ण | म | यि | ता | का | न | नो | दु | म्ब | रा | णाम् |
म | भ | न | त | त | ग | ग |