वल्लभदेवः
तत्र देवगिरौ सदासंनिहितं कुमारं त्वं सुरसरिदुदकरसैः कुसुमवर्षैः पुष्पमेघीकृतात्मत्वात्स्नपयेः पूजयेः । यस्माद्वासवीनां चमूनामैन्द्रीणां सेनानां रक्षार्थं नवशशिभृता चन्द्रमौलिनात्यादित्यं सूर्यादप्यधिकं तत्तेजो वीर्यं संभृतं क्षिप्तम् । असुरोपद्रुतसुररक्षार्थं हि कार्तिकेयो हरेण गौर्यां जनित इत्यागमः । तच्च शुक्रं स्वस्थानचलितमग्निना पीतमभूत् । वासवीनामिति दुर्लभः प्रयोगः । वृद्धाच्छेनाणो बाधितत्वात् । अतिक्रान्त आदित्यो येन तदत्यादित्यम् ॥
पदच्छेदः
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तत्र | तत्र (अव्ययः) |
स्कन्दं | स्कन्द (२.१) |
नियतवसतिं | नियत (√नि-यम् + क्त)–वसति (२.१) |
पुष्पमेघीकृतात्मा | पुष्प–मेघीकृत (√मेघी-कृ + क्त)–आत्मन् (१.१) |
पुष्पासारैः | पुष्प–आसार (३.३) |
स्नपयतु | स्नपयतु (√स्नपय् लोट् प्र.पु. एक.) |
भवान् | भवत् (१.१) |
व्योमगङ्गाजलार्द्रैः | व्योमगङ्गा–जल–आर्द्र (३.३) |
रक्षाहेतोर् | रक्षा–हेतु (५.१) |
नवशशिभृता | नवशशिभृत् (३.१) |
वासवीनां | वासव (६.३) |
चमूनाम् | चमू (६.३) |
अत्यादित्यं | अति (अव्ययः)–आदित्य (२.१) |
हुतवहमुखे | हुतवह–मुख (७.१) |
संभृतं | संभृत (√सम्-भृ + क्त, १.१) |
तद्धि | तद् (१.१)–हि (अव्ययः) |
तेजः | तेजस् (१.१) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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त | त्र | स्क | न्दं | नि | य | त | व | स | तिं | पु | ष्प | मे | घी | कृ | ता | त्मा |
पु | ष्पा | सा | रैः | स्न | प | य | तु | भ | वा | न्व्यो | म | ग | ङ्गा | ज | ला | र्द्रैः |
र | क्षा | हे | तो | र्न | व | श | शि | भृ | ता | वा | स | वी | नां | च | मू | ना |
म | त्या | दि | त्यं | हु | त | व | ह | मु | खे | सं | भृ | तं | त | द्द्हि | ते | जः |
म | भ | न | त | त | ग | ग |