वल्लभदेवः
शरवणभुवं कुमारमेवं पुष्पासारैः स्नपनादिप्रकारेणाराध्य किंचिच्चाध्वानमतिक्रम्य रन्तिदेवम्य राज्ञः कीर्तिं चर्मण्वत्याख्यां मानयिष्यन्पूजयितुं व्यालम्बेथाः श्रयेथा गच्छेः । कीदृशीम् । सुरभितनया गावस्तासामालम्भनं प्रोक्षणं ततो जाता प्रसूता भुवि च स्रोतोमूर्त्या प्रवाहरूपेण परिणतां रूपान्तरं गताम् । तेन हि नृपेण क्रतुष्वतिबृंहीयस्यो गावः संक्षापिता यासं रुधिराच्चर्मभ्यश्च चर्मण्वती सम्पन्नेत्यागमः । त्वं कीदृशः । सिद्धमिथुनस्तोयबिन्दुत्रासान्मुक्तमार्गः परिहृतपथः । यतो वीणिभिर्वल्लकीहस्तैः । तन्त्रीर्हि' जलार्द्रा विस्वरा भवति । अपरासाद्य वीर्यं सोढुमक्षमया गङ्गया शरवणे त्यक्तमित्यतः शरजत्वं स्कन्दस्य । प्रतिरन्तःशरेक्षुप्लक्षेत्यादिना णत्वम् ॥
पदच्छेदः
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आराध्यैनं | आराध्य (√आ-राधय् + ल्यप्)–एनद् (२.१) |
शरवणभवं | शरवण–भव (२.१) |
देवम् | देव (२.१) |
उल्लङ्घिताध्वा | उल्लङ्घित (√उत्-लङ्घय् + क्त)–अध्वन् (१.१) |
सिद्धद्वन्द्वैर् | सिद्ध (√सिध् + क्त)–द्वंद्व (३.३) |
जलकणभयाद् | जल–कण–भय (५.१) |
वीणिभिर् | वीणिन् (३.३) |
मुक्तमार्गः | मुक्त (√मुच् + क्त)–मार्ग (१.१) |
व्यालम्बेथाः | व्यालम्बेथाः (√व्या-लम्ब् विधिलिङ् म.पु. ) |
सुरभितनयालम्भजां | सुरभितनया–आलम्भ–ज (२.१) |
मानयिष्यन् | मानयिष्यत् (√मानय् + कृत्, १.१) |
स्रोतोमूर्त्या | स्रोतस्–मूर्ति (६.१) |
भुवि | भू (७.१) |
परिणतां | परिणत (√परि-नम् + क्त, २.१) |
रन्तिदेवस्य | रन्तिदेव (६.१) |
कीर्तिम् | कीर्ति (२.१) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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आ | रा | ध्यै | वं | श | र | व | ण | भु | वं | दे | व | मु | ल्ल | ङ्घि | ता | ध्वा |
सि | द्ध | द्व | न्द्वै | र्ज | ल | क | ण | भ | या | द्वी | णि | भि | र्मु | क्त | मा | र्गः |
व्या | ल | म्बे | थाः | सु | र | भि | त | न | या | ल | म्भ | जां | मा | न | यि | ष्य |
न्स्रो | तो | मू | र्त्या | भु | वि | प | रि | ण | तां | र | न्ति | दे | व | स्य | की | र्तिम् |
म | भ | न | त | त | ग | ग |