वल्लभदेवः
त्वयि तोयं ग्रहीतुमवनते लम्बमाने सति तस्याः मिन्धोश्चर्मण्वत्याः प्रवाहं सिताख्या नभश्चराश्चक्षूंषि दूरमत्यर्थमावर्ज्य निक्षिप्य कौतुकाद्द्रक्ष्यन्ति । यतो भुवः स्थूलमध्येन्द्रनीलमेकं मुक्तागुणं मौक्तिकदामेव । स्रोतसो मुक्तागुणनिभत्वादम्बुदस्य च महानीलतुल्यत्वात् । कीदृशं प्रवाहम् । पृथुमपि तनुं विस्तीमपि स्वल्पम् । कुतः । दूरभावाद्विप्रकर्षात् । दूराद्धि महदपि स्वल्पं दृश्यते । अत एव मुक्तागुणसारूप्यम् । त्वयि कीदृशे । सजलत्वात्कृष्णस्य वर्णचौरे नीले । एतेनेन्द्रनीलनिभत्वमुक्तम् ॥
पदच्छेदः
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त्वय्य् | त्वद् (७.१) |
आदातुं | आदातुम् (√आ-दा + तुमुन्) |
जलम् | जल (२.१) |
अवनते | अवनत (√अव-नम् + क्त, ७.१) |
शार्ङ्गिणो | शार्ङ्गिन् (६.१) |
वर्णचौरे | वर्ण–चौर (७.१) |
तस्याः | तद् (६.१) |
सिन्धोः | सिन्धु (६.१) |
पृथुम् | पृथु (२.१) |
अपि | अपि (अव्ययः) |
तनुं | तनु (२.१) |
दूरभावात् | दूर–भाव (५.१) |
प्रवाहम् | प्रवाह (२.१) |
प्रेक्षिष्यन्ते | प्रेक्षिष्यन्ते (√प्र-ईक्ष् लृट् प्र.पु. बहु.) |
गगनगतयो | गगन–गति (१.३) |
नूनम् | नूनम् (अव्ययः) |
आवर्ज्य | आवर्ज्य (√आ-वर्जय् + ल्यप्) |
दृष्टिर् | दृष्टि (१.१) |
एकं | एक (२.१) |
मुक्तागुणम् | मुक्ता–गुण (२.१) |
इव | इव (अव्ययः) |
भुवः | भू (६.१) |
स्थूलमध्येन्द्रनीलम् | स्थूल–मध्य–इन्द्रनील (२.१) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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त्व | य्या | दा | तुं | ज | ल | म | व | न | ते | शा | र्ङ्गि | णो | व | र्ण | चौ | रे |
त | स्याः | सि | न्धोः | पृ | थु | म | पि | त | नुं | दू | र | भा | वा | त्प्र | वा | हम् |
प्रे | क्षि | ष्य | न्ते | ग | ग | न | ग | त | यो | दू | र | मा | व | र्ज्य | दृ | ष्टी |
रे | कं | मु | क्ता | गु | ण | मि | व | भु | वः | स्थू | ल | म | ध्ये | न्द्र | नी | लम् |
म | भ | न | त | त | ग | ग |