वल्लभदेवः
यतस्त्वामहमेवंविधं वेदातोऽहं प्रार्थित्वं प्राप्तः । कीदृशम् । पुष्करावर्तकानां प्रलयमेघानां वंशे कुले जातमिति कुलीनत्वोक्तिः । तथा मघोन इन्द्रस्य प्रकृतिपुरुषममात्यपुरुषमिति प्रभावकथनम् । प्रकृतिषु ह्यमात्याः प्रधानभूताः । इन्द्रम्य च मेघा एव प्रियकराः । प्रकृतिषु प्रकृतिश्चासाविति वा पुरुषः प्रकृतिपुरुषः । स्वाम्यमात्यौ च राष्ट्रं च कोशो दुर्गं बलं सुहृत् । सप्त प्रकृतयो ह्येताः सप्ताङ्गं राज्यमुच्यते ॥ कामरूपं मनोज्ञं म्वेच्छारूपं वा । बह्वरूपत्वान्मेघानाम् । तदेव वक्ष्यति । पुष्पमेघीकृतात्मेति । अत एव विधिवशादहं दूरबन्धुरसंनिहितदारस्त्वय्यर्थित्वं गतो याच्ञाकरः संपन्नः । यद्येवंगुणयुक्तोऽहं तर्हि किमित्येतावता मय्यर्थनेत्याह । यस्मादधिगुणे कुलादिगुणोत्कृष्टे पुरुषे याच्ञा वन्ध्या निष्फला वरं भद्रम् । अलज्जावहत्वात् । न त्वधमे निकृष्टे लब्धकामा प्राप्तेष्टार्थापीति । भिन्नलिङ्गत्वेऽपि सामान्योपक्रमात्सामानाधिकरण्यम् । यथा। वरं कृपशताद्वापीत्यादौ' ॥
पदच्छेदः
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जातं | जात (√जन् + क्त, २.१) |
वंशे | वंश (७.१) |
भुवनविदिते | भुवन–विदित (√विद् + क्त, ७.१) |
पुष्करावर्तकानां | पुष्करावर्तक (६.३) |
जानामि | जानामि (√ज्ञा लट् उ.पु. ) |
त्वां | त्वद् (२.१) |
प्रकृतिपुरुषं | प्रकृतिपुरुष (२.१) |
कामरूपं | कामरूप (२.१) |
मघोनः | मघवन् (६.१) |
तेनार्थित्वं | तद् (३.१)–अर्थित्व (१.१) |
त्वयि | त्वद् (७.१) |
विधिवशाद्दूरबन्धुर्गतो | विधि–वश (५.१)–दूर–बन्धु (१.१)–गत (√गम् + क्त, १.१) |
ऽहं | मद् (१.१) |
याच्ञा | याच्ञा (१.१) |
मोघा | मोघ (१.१) |
वरम् | वर (२.१) |
अधिगुणे | अधिगुण (७.१) |
नाधमे | न (अव्ययः)–अधम (७.१) |
लब्धकामा | लब्ध (√लभ् + क्त)–काम (१.१) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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जा | तं | वं | शे | भु | व | न | वि | दि | ते | पु | ष्क | रा | व | र्त | का | नां |
जा | ना | मि | त्वां | प्र | कृ | ति | पु | रु | षं | का | म | रू | पं | म | घो | नः |
ते | ना | र्थि | त्वं | त्व | यि | वि | धि | व | शा | द्दू | र | ब | न्धु | र्ग | तो | ऽहं |
या | च्ञा | व | न्ध्या | व | र | म | धि | गु | णे | ना | ध | मे | ल | ब्ध | का | मा |
म | भ | न | त | त | ग | ग |