वल्लभदेवः
हे पयोद संतप्तानामम्बुदानेन त्वं यदा शरणं त्राणं भवसि तन्ममापि विरहसंतप्तस्य संदेशं वार्तां प्रियायाः सकाशं हर नय प्रापय । धनपतिक्रोधविश्लेषितस्येति संतप्तत्वप्रतिपादनम् । क्व मया गन्तव्यमित्याह । गुह्यकाधिपानां वसतिरलका नाम पुरी ते गन्तव्या यातव्या । न च सा दुर्ज्ञानेत्याह' । बाह्योद्याने कैलासोपवने । बाह्यं च तदुदवानं च । तत्र स्थितो यो हरस्तस्य शिरश्चन्द्रिकया धौतानि हर्म्याणि यत्र सा दिनेऽपि विक्षालितसौधा । त इति कृत्यानां कर्तरि वा ॥
पदच्छेदः
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संतप्तानां | संतप्त (√सम्-तप् + क्त, ६.३) |
त्वमसि | त्वद् (१.१)–असि (√अस् लट् म.पु. ) |
शरणं | शरण (१.१) |
तत्पयोद | तद् (२.१)–पयोद (८.१) |
प्रियायाः | प्रिया (६.१) |
संदेशं | संदेश (२.१) |
मे | मद् (६.१) |
हर | हर (√हृ लोट् म.पु. ) |
धनपतिक्रोधविश्लेषितस्य | धनपति–क्रोध–विश्लेषित (√वि-श्लेषय् + क्त, ६.१) |
गन्तव्या | गन्तव्य (√गम् + कृत्, १.१) |
ते | त्वद् (६.१) |
वसतिर् | वसति (१.१) |
अलका | अलका (१.१) |
नाम | नाम (अव्ययः) |
यक्षेश्वराणां | यक्ष–ईश्वर (६.३) |
बाह्योद्यानस्थितहरशिरश्चन्द्रिकाधौतहर्म्या | बाह्य–उद्यान–स्थित (√स्था + क्त)–हर–शिरस्–चन्द्रिका–धौत–हर्म्य (१.१) |
छन्दः
मन्दाक्रान्ता [१७: मभनततगग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ |
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सं | त | प्ता | नां | त्व | म | सि | श | र | णं | त | त्प | यो | द | प्रि | या | याः |
सं | दे | शं | मे | ह | र | ध | न | प | ति | क्रो | ध | वि | श्ले | षि | त | स्य |
ग | न्त | व्या | ते | व | स | ति | र | ल | का | ना | म | य | क्षे | श्व | रा | णां |
बा | ह्यो | द्या | न | स्थि | त | ह | र | शि | र | श्च | न्द्रि | का | धौ | त | ह | र्म्या |
म | भ | न | त | त | ग | ग |