पदच्छेदः
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एके | एक (१.३) |
सत्पुरुषाः | सत्–पुरुष (१.३) |
परार्थघटकाः | पर–अर्थ–घटक (१.३) |
स्वार्थं | स्व–अर्थ (२.१) |
परित्यजन्ति | परित्यजन्ति (√परि-त्यज् लट् प्र.पु. बहु.) |
ये | यद् (१.३) |
सामान्यास् | सामान्य (१.३) |
तु | तु (अव्ययः) |
परार्थम् | पर–अर्थ (२.१) |
उद्यमभृतः | उद्यम–भृत् (१.३) |
स्वार्थाविरोधेन | स्व–अर्थ–अविरोध (३.१) |
ये | यद् (१.३) |
ते | तद् (१.३) |
ऽमी | अदस् (१.३) |
मानुषराक्षसाः | मानुष–राक्षस (१.३) |
परहितं | पर–हित (२.१) |
स्वार्थाय | स्व–अर्थ (४.१) |
निघ्नन्ति | निघ्नन्ति (√नि-हन् लट् प्र.पु. बहु.) |
ये | यद् (१.३) |
ये | यद् (१.३) |
तु | तु (अव्ययः) |
घ्नन्ति | घ्नन्ति (√हन् लट् प्र.पु. बहु.) |
निरर्थकं | निरर्थक (२.१) |
परहितं | पर–हित (२.१) |
ते | तद् (१.३) |
के | क (१.३) |
न | न (अव्ययः) |
जानीमहे | जानीमहे (√ज्ञा लट् उ.पु. द्वि.) |
छन्दः
शार्दूलविक्रीडितम् [१९: मसजसततग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ | १८ | १९ | २० |
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ए | के | स | त्पु | रु | षाः | प | रा | र्थ | घ | ट | काः | स्वा | र्थं | प | रि | त्य | ज | न्ति | ये |
सा | मा | न्या | स्तु | प | रा | र्थ | मु | द्य | म | भृ | तः | स्वा | र्था | वि | रो | धे | न | ये |
ते | ऽमी | मा | नु | ष | रा | क्ष | साः | प | र | हि | तं | स्वा | र्था | य | नि | घ्न | न्ति | ये |
ये | तु | घ्न | न्ति | नि | र | र्थ | कं | प | र | हि | तं | ते | के | न | जा | नी | म | हे |
म | स | ज | स | त | त | ग |