पदच्छेदः
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द्रष्टव्येषु | द्रष्टव्य (√दृश् + कृत्, ७.३) |
किम् | क (१.१) |
उत्तमं | उत्तम (१.१) |
मृगदृशः | मृग–दृश् (५.१) |
प्रेमप्रसन्नं | प्रेमन्–प्रसन्न (√प्र-सद् + क्त, १.१) |
मुखं | मुख (१.१) |
घ्रातव्येष्व् | घ्रातव्य (√घ्रा + कृत्, ७.३) |
अपि | अपि (अव्ययः) |
किं | क (१.१) |
तदास्यपवनः | तद्–आस्य–पवन (१.१) |
श्रव्येषु | श्रव्य (√श्रु + कृत्, ७.३) |
किं | क (१.१) |
तद्वचः | तद्–वचस् (१.१) |
किं | क (२.१) |
स्वाद्येषु | स्वाद्य (√स्वादय् + कृत्, ७.३) |
तदोष्ठपल्लवरसः | तद्–ओष्ठ–पल्लव–रस (१.१) |
स्पृश्येषु | स्पृश्य (√स्पृश् + कृत्, ७.३) |
किं | क (१.१) |
तद्वपुर्ध्येयं | तद्–वपुस्–ध्येय (√ध्या + कृत्, १.१) |
किं | क (१.१) |
नवयौवने | नवन्–यौवन (७.१) |
सहृदयैः | सहृदय (३.३) |
सर्वत्र | सर्वत्र (अव्ययः) |
तद्विभ्रमाः | तद्–विभ्रम (१.३) |
छन्दः
शार्दूलविक्रीडितम् [१९: मसजसततग]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ | ९ | १० | ११ | १२ | १३ | १४ | १५ | १६ | १७ | १८ | १९ |
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द्र | ष्ट | व्ये | षु | कि | मु | त्त | मं | मृ | ग | दृ | शः | प्रे | म | प्र | स | न्नं | मु | खं |
घ्रा | त | वे | ष्व | पि | किं | त | दा | स्य | प | व | नः | श्र | व्ये | षु | किं | त | द्व | चः |
किं | स्वा | द्ये | षु | त | दो | ष्ठ | प | ल्ल | व | र | सः | स्पृ | श्ये | षु | किं | त | द्व | पु |
र्ध्ये | यं | किं | न | व | यौ | व | ने | स | हृ | द | यैः | स | र्व | त्र | त | द्वि | भ्र | माः |
म | स | ज | स | त | त | ग |