Summary
In detail, please expound, once again Your own Yogic power and the manifesting power. O Janardana ! I don't feel contended in hearing Your nectar-[like exposition].
पदच्छेदः
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विस्तरेणात्मनो | विस्तर (३.१)–आत्मन् (६.१) |
योगं | योग (२.१) |
विभूतिं | विभूति (२.१) |
च | च (अव्ययः) |
जनार्दन | जनार्दन (८.१) |
भूयः | भूयस् (अव्ययः) |
कथय | कथय (√कथय् लोट् म.पु. ) |
तृप्तिर्हि | तृप्ति (१.१)–हि (अव्ययः) |
शृण्वतो | शृण्वत् (√श्रु + शतृ, ६.१) |
नास्ति | न (अव्ययः)–अस्ति (√अस् लट् प्र.पु. एक.) |
मे | मद् (६.१) |
ऽमृतम् | अमृत (२.१) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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वि | स्त | रे | णा | त्म | नो | यो | गं |
वि | भू | तिं | च | ज | ना | र्द | न |
भू | यः | क | थ | य | तृ | प्ति | र्हि |
शृ | ण्व | तो | ना | स्ति | मे | ऽमृ | तम् |