Summary
Whatsoever being exists with the manifesting power, and with beauty and vigour, be sure that it is born only of a bit of My illuminant.
पदच्छेदः
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यद्यद्विभूतिमत्सत्त्वं | यद् (१.१)–यद् (१.१)–विभूतिमत् (१.१)–सत्त्व (१.१) |
श्रीमदूर्जितमेव | श्रीमत् (१.१)–ऊर्जित (√ऊर्जय् + क्त, १.१)–एव (अव्ययः) |
वा | वा (अव्ययः) |
तत्तदेवावगच्छ | तद् (२.१)–तद् (२.१)–एव (अव्ययः)–अवगच्छ (√अव-गम् लोट् म.पु. ) |
त्वं | त्वद् (१.१) |
मम | मद् (६.१) |
तेजोऽंशसंभवम् | तेजस्–अंश–सम्भव (२.१) |
छन्दः
अनुष्टुप् [८]
छन्दोविश्लेषणम्
१ | २ | ३ | ४ | ५ | ६ | ७ | ८ |
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य | द्य | द्वि | भू | ति | म | त्स | त्त्वं |
श्री | म | दू | र्जि | त | मे | व | वा |
त | त्त | दे | वा | व | ग | च्छ | त्वं |
म | म | ते | जों | श | सं | भ | वम् |